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________________ ११५६ ] [ पं. रतनचन्द जैन मुख्तार । विभावव्यंजन पर्याय जाननी चाहिये । प्रगुरुलघुकगुण की षट्स्थानपतित हानि-वृद्धिरूप सर्वद्रव्यों की शुद्धअर्थ पर्याय है । एकसमयतक रहनेवाली अर्थपर्याय है और चिरकाल तक रहनेवाली व्यंजनपर्यायें हैं । सभी व्यंजनपर्यायों का नाश अवश्य होना चाहिये, ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर एकान्तवाद ( एकान्त मिथ्यात्व ) का प्रसंग आ जायगा । कहा भी है "ण च वियंजणपज्जायस्स सम्बस्स विणासेण होवग्यमिदि नियमो अस्थि, एयंतवादप्प संगादो ।" इसलिये अमादि-अनन्त और सादि-अनन्त भी व्यंजनपर्यायें होती हैं, जैसे मेरु आदि पुद्गल की अनादिअनन्त व्यंजनपर्यायें हैं और 'सिद्ध' जीव को सादि-अनन्तपर्याय है अर्थात् कर्मों के क्षय से सिद्धपर्याय उत्पन्न होती है, अतः बह सादि है । किन्तु सिद्धपर्याय का व्यय ( नाश ) नहीं होता इसलिये अनन्त है । "अनादिनित्य पर्यायार्थिको यथा पुगलपर्यायो नित्यो मेर्वादिः । सादिनित्यपर्यायार्थिको यथा सिद्धपर्यायो नित्यः । " ( आलापपद्धति ) धवल पु० ७ पृ० १७८ यद्यपि व्यंजनपर्याय की अपेक्षा मेरु श्रादिरूप पुद्गल नित्य है तथापि अर्थ पर्याय की अपेक्षा उसमें प्रतिक्षण परिणमन हो रहा है । क्योंकि अर्थपर्याय सूक्ष्म है और वचन अगोचर है, अतः उसका कथन होना सम्भव नहीं है । श्रर्थपर्याय तथा व्यञ्जनपर्याय का श्रागमोक्त स्वरूप शंका- 'जैन सिद्धान्तप्रवेशिका' पृ० ३५ व ३६ पर अर्थपर्याय व व्यंजनपर्याय का स्वरूप बतलाया है कि प्रदेश स्वगुण के विकार को व्यंजनपर्याय व अन्य समस्त गुणों के विकार को अर्थयर्याय कहते हैं। ऐसा ही कथन स्वामीकार्तिकेयानुप्रक्षा पृ. ५७ पर दिया है। क्या ये कथन ठीक हैं ? कहा है समाधान - स्वामीकार्तिकेयानुप्रक्षा पृ० ५७ पर भी पं० कैलाशचन्दजी ने प्रदेशत्व गुण के विकार को व्यंजनपर्याय और अन्य शेष गुणों के विकार को अर्थपर्याय कहते हैं, जो यह लिखा है वह उनका निजीमत है । मूलगाथा या संस्कृत टीका में ऐसा कथन नहीं है । इसोप्रकार पृ० १५३ पर भी पं० कैलाशचन्दजी ने अपनी कल्पना से कथन किया है । स्वामीकार्तिकेयानुप्रक्षा के संस्कृत टीकाकार श्री शुभचन्द्राचार्य ने तो श्रर्थपर्याय का लक्षण निम्नप्रकार बतलाया है - जै. ग. 11-8-66/ VII / म. ला जैन Jain Education International "अर्थ पर्याय: सूक्ष्मः प्रतिक्षणध्वंसी उत्पादव्ययलक्षणः । सूक्ष्मप्रतिक्षणध्वंसी पर्यायश्चार्थसंज्ञकः इतिवचनात् ।" स्वा० का० अ० गा० २७४ टोका सूक्ष्म, प्रतिक्षण नाश होनेवाली उत्पाद व्यय लक्षणवाली अर्थपर्याय है । आचार्य श्री वसुनम्बि ने भी For Private & Personal Use Only सुहमा अवायविस्या खणखणो अस्था पज्जया विट्ठा । वंजणपज्जाया पुण बुला गिरगोयरा चिरविवस्था ||२५|| वसुनन्दि श्रावकाचार www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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