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________________ प्यक्तित्व और कृतित्व । [११८५ उपज्जति वियंतीय भावा णियमेण पज्जवणयस्त । ववट्टियस्स सव्वं सदा अणुप्पण्णमविणटुं ॥ ८॥ धवल पु. १ पृ० १३ अर्थ-पर्यायाथिकनय की अपेक्षा पदार्थ नियम से उत्पन्न होते हैं और नाश को प्राप्त होते हैं, किन्तु द्रव्याथिकनय की अपेक्षा सर्वपदार्थ सदा अनुत्पन्न और अविनष्ट स्वभाववाले हैं। जो अपनी पर्यायों को प्राप्त हो वह द्रव्य है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने पंचास्तिकाय गाथा ९ में कहा भी है "ववियदि गच्छदि ताई ताई सम्भावपज्जयाई । दषियं तं भण्णंते अणण्णभूवं तु सत्तावो ॥९॥ अर्थात-जो उन-उन अपनी पर्यायों को द्रवित होता है प्राप्त होता है उसे द्रव्य कहते हैं और वह सत्ता से अनन्यभूत है। द्रव्य अपनी पर्यायों से अनन्य है, इसीलिये द्रव्य अपनी पर्यायों के प्रमाणस्वरूप है। पज्जयविजुदं दध्वं वव्व विजुत्ता य पज्जया णस्थि । दोण्हं अणण्णभूवं भावं समणा परूवति ॥ १२ ॥ पंचास्तिकाय अर्थ-पर्यायों से रहित द्रव्य और द्रव्य से रहित पर्याय नहीं होती, दोनों का अनन्तभाव है, ऐसा श्रमण अर्थात् महाश्रमण सर्वज्ञदेव ने कहा है। एय-ववियम्मि जे अत्थपज्जया क्यण-पज्जया वावि । तीदाणागय भूवा तावदियं तं हवइ दध्वं ॥ अर्थ-एकद्रव्य में अतीत, अनागत और वर्तमानरूप जितनी अर्थपर्यायें और व्यंजनपर्यायें हैं तत्प्रमाण वह द्रव्य होता है। "अर्थव्यंजनपर्यायरूपेण द्विधा पर्याया भवन्ति । तत्रार्थपर्यायाः सूक्ष्मा क्षणक्षयिणस्तथावाग्गोचराविषया भवन्ति । व्यंजनपर्यायाः पुनः स्थलाश्चिरकालस्थायिनो वाग्गोचराश्छद्मस्थ दृष्टिविषयाश्च भवन्ति । एते विभावरूपा व्यंजनपर्याया जीवस्य नरनारकादयो भवन्ति, स्वभावव्यंजनपर्यायो जीवस्य सिद्धरूपः। अशुद्धार्थपर्याया जीवस्य षटस्थानगतकषायहानिवृद्धिविशुद्धिसंक्लेशरूपशुभाशुभलेश्यास्थानेषु ज्ञातव्याः। पुद्गलस्य विभावार्थपर्याया द्वयणुकादिस्कन्धेषु वर्णान्तरादिपरिणमनरूपाः। विभावव्यंजनपर्यायाश्च पुद्गलस्य द्वयणुकाविस्कंधेष्वेव चिरकालस्थायिनो ज्ञातव्याः । शुद्धार्थपर्याया अगुरुलघुक गुणषड्ढानिवृद्धिरूपेण पूर्वमेव सर्वव्याणां कथिताः। ............. एकसमयतिनोऽर्थपर्याया भयंते चिरकालस्थायिनो व्यंजनपर्याया भयंते ।" पंचास्तिकाय गाथा १६ टीका । अर्थात-अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय के भेद से पर्याय दो प्रकार की होती हैं । अर्थपर्याय सूक्ष्म है, क्षणक्षण में नाश को प्राप्त होने वाली है तथा वचन के अगोचर है। व्यंजनपर्याय स्थूल है, चिरकाल तक रहनेवाली है। वचनगोचर है तथा छद्मस्थ के इन्द्रिय का विषय है । जीव की विभावव्यंजनपर्यायें नर, नारक आदि हैं और सिद्धरूप जीव की स्वभावव्यंजनपर्याय है । जीव की अशुद्ध अर्थपर्याय, विशुद्धि और संक्लेशरूप शुभ-अशुभलेश्यास्थानों में कषाय की षट्स्थानपतित हानि-वृद्धिरूप जानना चाहिये । व्यणुकादि स्कन्धों में वर्णान्तर आदि परिणमनरूप पुद्गल की विभाव अर्थपर्याय है। पुद्गल की व्यणुक आदि स्कन्धरूप चिरकालतक रहनेवाली पर्याय पुद्गल की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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