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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ११७३ जिसके उदय से इतना भारी नहीं हो जाता कि लोहपिण्ड की तरह नीचे पृथिवी में घूमता चला जाय और इतना हल्का नहीं होता कि श्रर्कतूल ( आँखों की रुई) के समान इधर-उधर उड़ता फिरे। धर्म, अधर्म, प्रकाश, काल में अनादि स्वाभाविक अगुरुलघुगुरण के कारण अगुरुलघुपना है । अनादिकाल से कर्म व नोकर्म से बन्धे हुए संसारी जीवों में कर्मोदयकृत अगुरुलघुपना है । कर्म-नोकर्म से अत्यन्त निवृत्त होने पर मुक्तजीवों में स्वाभाविक गुरुलघुगुण का आविर्भाव हो जाता है । समयसार में अगुरुलघुशक्ति का स्वरूप इसप्रकार कहा है - 'बट् स्थानपतितवृद्धिहानिपरिणतस्वरूपप्रतिष्ठत्वकारणविशिष्टगुणात्मिका अगुरुलघुत्वशक्तिः ।' स्वरूपप्रतिष्ठत्व में कारणरूप षट्स्थानपतितवृद्धि हानिवाली विशिष्टगुणस्वरूप अगुरुलघुत्वशक्ति है । अर्थात् यदि षटस्थानपतितवृद्धि-हानि न हो तो शुद्धदव्यों में परिणमन न होने से द्रव्य कूटस्थ हो जायगा । द्रव्य कूटस्थ होता नहीं, अतः षट्स्थानपतितवृद्धि-हानि द्रव्यके स्वरूप प्रतिष्ठत्व में कारण है । यहाँ पर यह नहीं कहा गया कि अगुरुलघु के कारण एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप या एक गुण दूसरे गुणरूप नहीं होता, क्योंकि यह कार्य तो अस्तित्व गुण का है । लघुजैन सिद्धान्त प्रवेशिका में 'षट्स्थान पतितहानि-वृद्धि अगुरुलघुगुण का कार्य है' ऐसा कथन नहीं है । अतः लघुजैन सिद्धान्तप्रवेशिका में अगुरुलघुगुण का जो स्वरूप बतलाया गया है वह आग्रन्थ अनुकूल नहीं है । - जै. ग. 9-10-75 /र. ला. जैनः एम. कॉम. सिद्धों में गुरुलघुगुण शंका- 'सिद्धों में गोत्रकर्म के नाश से अगुरुलघुगुण प्रकट होता है,' यहाँ अगुरुलघु का क्या तात्पर्य है ? 'अन्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शन सिद्धत्वेभ्यः' सूत्र में सिद्धों के अगुरुलघुगुण का कोई जिक्र नहीं है, सिद्धों में अगुरुलघुगुण क्यों माना जाय ? समाधान - प्रत्येक द्रव्य में अगुरुलघु साधारण गुण होता है जिसके द्वारा षट्गुणी हानि-वृद्धिरूप परिणमन अर्थात् स्वभाव अर्थ पर्याय शुद्धद्रव्यों में प्रतिसमय होती रहती है। कहा भी है "अस्तित्वं, वस्तुस्वं द्रव्यत्वं, प्रमेयत्वं अगुरुलघुत्वं, प्रदेशत्वं, चेतनत्वमचेतनत्वं मूर्तस्वममूर्तत्वं द्रव्याणां दश सामान्यगुणाः प्रत्येक मष्टावष्टौ सर्वेषाम् । अगुरुलघुविकाराः स्वभावार्थपर्यायास्तेद्वादशधा षड्वृद्धिरूपाः षड्ढारूपाः । सूक्ष्मा अवाग्गोचराः प्रतिक्षणं वर्तमाना आगमप्रमाणादभ्युपगम्या अगुरुलघुगुणाः । आलापपद्धति "स्वभाव पर्याय नाम समस्तद्रव्याणामात्मीयात्मीयागुरुलघुगुणद्वारेण प्रतिसमयसमुदीयमान षट्स्थानपतितवृद्धिहानिनानात्वानुभूतिः ।" प्रवचनसार गाथा ९३ टीका यहाँ पर यह बतलाया गया है कि अगुरुलघु सामान्यगुण है जो सूक्ष्म है, वचन के अगोचर है, जिसमें प्रतिसमय वर्तना होती रहती है तथा आगमप्रमाण से जाना जाता है । समस्त द्रव्यों में अपने-अपने अगुरुलघुगुण के द्वारा प्रतिसमय षट्स्थानपतित वृद्धिहानिरूप स्वभावअर्थपर्याय होती रहती है । संसारावस्था में द्रव्यकर्मबन्ध के कारण जीव अशुद्ध हो रहा है अतः उसमें स्वभाविक अगुरुलघुगुण का तिरोभाव हो रहा है, क्योंकि उसका विभावरूप परिणमन रहा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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