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________________ ११७२ ] [पं. रतनचन्द जैन मुख्तार । 'मुक्तजीवानां कथमितिचेत् ? अनाविकमनोकर्मसंबन्धानां कर्मोदयकृतमगुरुलघुत्वम्, तदत्यन्तविनिवृत्तौ तु स्वभाविकमाविर्भवति ।' मुक्तजीवों के अगुरुल घुत्व कसे सम्भव है ? संसारी जीवों के अनादिकाल से कर्म-नोकमं का सम्बन्ध प्रवाहरूप से चला आ रहा है, मुक्तजीवों के कर्म-नोकर्म उदयजनित प्रगुरुल घुत्व की अत्यन्त निवृत्ति हो जाने से स्वाभाविकअगुरुलघुगुण का आविर्भाव हो जाता है । इसी बात को श्री भास्करनन्दि आचार्य ने भी कहा है'मुक्तात्मानां तु कर्मकृतागुरुलघुत्वाभावेऽपि स्वभाविकं तदाविर्भवति ।' -ज.ग. 22-10-70/VIII/ पदमचंद्र शंका-सोनगढ़ से प्रकाशित 'लघृजनसिद्धान्तप्रवेशिका' में अगुरुलघुगुण का स्वरूप इसप्रकार कहा है"जिस शक्ति के कारण से द्रव्य में द्रध्यपना कायम रहता है, अर्थात एक द्रव्य दूसरे द्रध्यरूप नहीं होता है, एक गुण दूसरे गुणरूप नहीं होता है और द्रव्य में रहने वाले अनन्तगण विखर कर अलग-अलग नहीं हो जाते हैं, उस शक्ति को अगरुलघुत्वगुण कहते हैं।' इसका अभिप्राय क्या स्वरूप प्रतिष्ठत्व नहीं है जैसा कि समयसार को सत्तरहवीं शक्ति में कहा गया है ? समाधान-आलापपद्धति सूत्र ९९३ श्लोक ५ में अगुरुल घुगण का स्वरूप इसप्रकार कहा गया है'अगरुलघोर्भावोऽगरुलघुत्वम् सूक्ष्मा अवाग्गोचराः प्रतिक्षणं वर्तमाना आगमप्रमाण्यावभ्युपगम्या अगरलघगणाः ॥१९॥ सूक्ष्म जिनोवितं तत्त्वं, हेतुभि व हन्यते । आज्ञासिद्ध तु तद्ग्राह्य, नान्यथावादिनो जिनाः ॥५॥ जो सूक्ष्म है, वचनों के अगोचर है, प्रतिसमय परिणमनशील है तथा आगमप्रमाण से जाना जाता है, वह अगुरुलघुगुण है। अगुरुल घुगुण चूकि प्रतिसमय परिणमनशील है इसीलिए शुद्धद्रव्यों में षट्स्थानपतित वृद्धि हानिरूप स्वभावपर्याय होती रहती हैं । श्री अमृतचन्द्राचार्य ने कहा भी है 'स्वाभावपर्यायो नाम समस्त द्रव्याणामात्मीयात्मीयागुरुलघुगणद्वारेण प्रतिसमयसमुदीयामानषस्थानपतितवृद्धिहानिनानात्वानुभूतिः।' समस्त द्रव्यों में अपने-अपने अगुरुलघुगुणद्वारा प्रतिसमय प्रगट होने वाली षटस्थानपतित हानि-वद्धिरूप अनेकत्व की अनुभूति स्वभावपर्याय है । श्री अकलंकदेव ने भी कहा है 'यस्योदयादयस्पिण्डवत गुरुत्वानाधः पतति न वाऽर्कतूलवल्लघुत्वावं गच्छति तद्गुरुलघुनाम । धर्मादीनामजीवानां कथमगुरुलघुत्वमिति चेत् ? अनादिपारिणामिकागुरुलघुत्वगुणयोगात् मुक्तजीवानां कथमिति चेत् ? अनादिकर्मनोकर्मसम्बन्धानां कर्मोदयकृतमगुरुलघुत्वम्, तदत्यन्तविनिवृत्तौ तु स्वाभाविकमाविर्भवति ।' --रा० वा०८।११।१२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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