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________________ ८६४ ] ।रतनचन्द जैन मुख्तार व्रतं शीलतपोवानं संयमोऽहंत्-पूजनम् । दुःख-विच्छित्तये सर्व प्रोक्तमतन्न संशयः ॥३२२॥ (सार समुच्चय) संसार के दुखों का नाश करने के लिये व्रत, शील, तप, दान, संयम तथा अहंत-पूजन ये सब उपाय हैं इसमें संशय नहीं करना चाहिए। वीतराग निर्ग्रन्थ महाव्रतधारी गुरुओं का उपदेश तो इस प्रकार है। इसके विपरीत रागी द्वेषी सग्रन्थ असंयमी गुरु का उपदेश माननीय नहीं हो सकता है । आर्ष ग्रन्थों की स्वाध्याय से ही यथार्थ ज्ञान हो सकता है । -जे. ग. 20-3-75 व 27-3-75/VI/ राजमल जैन जीव तत्त्व : सम्यग्दर्शन १. व्यवहार व निश्चय के स्वरूप तथा भेद-प्रति भेद २. व्यवहार सम्यग्दर्शन भी वास्तविक सम्यग्दर्शन है ३. व्यवहार सम्यक्त्व में मिथ्यात्व कर्म के उदय का प्रभाव रहता है ४. निश्चय व व्यवहार सम्यक्त्व का स्वरूप एवं प्रक्रमास्तित्वविचार शंका-व्यवहार सम्यग्दर्शन व निश्चय सम्यग्दर्शन, इनका क्या स्वरूप है? व्यवहार सम्यग्दर्शन को निश्चय सम्यग्दर्शन का कारण कहा है, सो व्यवहार सम्यग्दर्शन क्या केवल निश्चय सम्यग्दर्शन का कारण होने से ही व्यवहार सम्यग्दर्शन है, वैसे वह सम्यक्त्व नहीं ? करणानुयोग की सूक्ष्मदृष्टि से व्यवहार सम्यग्दर्शन मिथ्यात्व ही है क्या? जिसे देव, शास्त्र, गुरु की सच्ची श्रद्धा है उसे ध्यवहार सम्यक्त्व कहा जाता है तथा जिसे आत्म-श्रद्धा है अपने आप में रुचि है उसे निश्चयसम्यक्त्व कहा जाता है। तब व्यवहारसम्यक्त्व अर्थात देव, गुरु, शास्त्र की सच्ची श्रद्धावाला अपने आपकी रुचि रखने वाला होगा या नहीं? और अपने आप में रुचि रखने वाला देव, गुरु, शास्त्र का सच्चा श्रद्धानी होगा या नहीं? किसी भी जीव के व्यवहार व निश्चयसम्यक्त्व दोनों साथ रहते हैं या इनमें से कोई भी रह सकता है ? यदि है तो कौनसा और क्यों कर ? निश्चय सम्यक्त्व मोक्ष का साक्षात् कारण है तब व्यवहार सम्यक्त्व भी परंपरा से कारण है या नहीं ? व्यवहार सम्यग्दर्शन होने पर भी संसार अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल मात्र रह जाता है या नहीं? क्या निश्चयसम्यक्त्व व व्यवहारसम्यक्त्व एक ही सम्यक्त्व के दो प्रकार कथन करने की अपेक्षा से हैं ? यदि ऐसा है तो निश्चय व व्यवहार दोनों सम्यक्त्व एक दूसरे के साथ ही रहेंगे, एक दूसरे के बिना रहेंगे नहीं ? और यह बात फिर प्रत्येक कथन में होनी चाहिए कि प्रत्येक वस्तु का निश्चय और व्यवहार दोनों प्रकार से निरूपण हो सकता है और दोनों ही धर्म प्रत्येक वस्तु में होने चाहिये तब दोनों साथ ही होंगे? समाधान-इस शंका का समाधान करने से पूर्व निश्चय और व्यवहारनय का स्वरूप तथा उनके भेद प्रतिभेदों का कथन करना आवश्यक है। अतः सर्व प्रथम नय का लक्षण और निश्चय व व्यवहार की अपेक्षा उसके भेदों का कथन किया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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