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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ८६३ हो जाता है और सदा वैसा ही रहता है, उसीप्रकार श्रुतप्रभ्यास करने पर भव्य जीव भी राग-द्वेषादि-मलसे रहित होकर विशुद्ध होता हुआ मुक्त हो जाता है और सदा उसी अवस्था में रहता है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भी कहा है सुत्तं जिणोवविट्ठ पोग्गलदध्वप्पगेहिं वयणेहिं । त जाणणा हि णाण सुत्तस्स य जाणणा भणिया ॥३४॥ प्रवचनसार जिन भगवान ने पौद्गलिक दिव्यध्वनि वचनों द्वारा द्रव्यश्रु त का उपदेश दिया है। उस द्रव्यश्रु त के प्राधार से जो जानपना है वह भाव श्रु तज्ञान है । इस गाथा में श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने यह बतलाया है कि दिव्यध्वनि के द्वारा द्रव्यश्रुत की रचना हुई है और उस द्रव्यश्रु त के आधार से भावश्रुतज्ञान उत्पन्न होता है । "णिच्छित्ती आगमदो आगमचेद्वा तदो जेट्ठा।" टीका-पदार्थ निश्चि तिरागमतो भवति । ततः कारणादेवमुक्तलक्षणागमपरमागमे च चेष्टा प्रवृत्तिः ज्येष्ठा प्रशत्येत्यर्थः ॥२३२॥ ( प्रवचनसार जयसेनीय टीका ) पागम से पदार्थों का निश्चय होता है । इसलिये शास्त्राभ्यास में उद्यम करना श्रेष्ठ है । सम्वे आगमसिद्धा अत्था गुणपज्जएहि चित्त हि । जाणंति आगमेण हि पेच्छित्ता ते वि ते समणा ॥२३५॥ प्रवचनसार नानाप्रकार गुण-पर्यायोंसहित सर्वपदार्थ आगम से सिद्ध हैं। आगम से शास्त्र के द्वारा उन सब पदार्थों को यथार्थ देखकर जो जानते हैं वे ही साधु हैं । ___ इस गाथा में श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने यह बतलाया है कि आगम अर्थात् शास्त्र के द्वारा सर्व पदार्थों का यथार्थ ज्ञान होता है। इसीलिये, 'आगमचक्खू साहू' अर्थात् साधु सर्व पदार्थों को आगम के द्वारा जानता है, ऐसा कहा गया है। इन आर्षवाक्यों से यह सिद्ध हो जाता है कि वीतरागदेव, निर्ग्रन्थगुरु, दयामयी धर्म और स्याद्वादमयी जिनवाणी का यथार्थ ज्ञान व श्रद्धान सम्यग्दर्शन है । यदि देव, गुरु, शास्त्र में उपयोग नहीं जायगा तो उनका ज्ञान और श्रद्धान संभव नहीं है। देव, गुरु, शास्त्र के ज्ञानाभाव में सम्यग्दर्शन के अभाव का प्रसंग आता है। सम्यग्दर्शन के अभाव में मोक्षमार्ग का प्रभाव हो जायगा, क्योंकि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की एकता ही मोक्षमार्ग है। यदि यह कहा जाय कि देव, गुरु, शास्त्र में उपयोग जाने से रागोत्पत्ति की सम्भावना है, इसलिये देव, गुरु, शास्त्र में उपयोग नहीं जाना चाहिए; तो ऐसा कहना ठीक नहीं है। देव, गुरु, शास्त्र में यदि राग की उत्पत्ति भी हो जाय तो वह राग प्रशस्त है, क्योंकि उसका आश्रय वीतरागता से है। वह प्रशस्तराग मोक्ष मार्ग का बाधक न होकर साधक है । कहा भी है विधूततमसो रागस्तपः श्रुतनिवन्धनः । संध्याराग इवार्कस्य जन्तोरभ्युदयाय सः ॥१२३॥ [आत्मानुशासन] तप व शास्त्र विषयक जो अनुराग है वह अज्ञानरूप अंधकार को नष्ट करने वाला है, इसलिये सूर्य की प्रभात कालीन लालिमा के समान है। उससे स्वर्ग व मोक्ष सुख मिलता है। श्री कुलभद्राचार्य ने संसार दुःखक्षय का उपाय बतलाते हुए कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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