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________________ ११६० ] [ पं. रतनचन्द जैन मुख्तार भी दोप्रकार का है, एक स्वभाव दूसरा विभाव अतीन्द्रिय और असहाय केवल दर्शनस्वभाव दर्शनोपयोग है। चक्षु, अचक्षु और अवधि दर्शन के भेद से विभावदर्शनोपयोग तीनप्रकार का है। इसप्रकार ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग के कर्मकृत भेदों में से प्रत्येक भेद एक-एक वैभाविकगुण हो जाता है। प्रत्येक भेद की एकसमय में एक ही पर्याय होती है, किसी भी भेद की एकसमय में दोपर्याय नहीं होती है। ज्ञानावरण और दर्शनावरणकर्मों का क्षय हो जाने से स्वाभाविकज्ञान और स्वाभाविकदर्शन एक एकरूप हो जाता है । कर्मकृत भेदों का अभाव हो जाता है । जैसे एक बड़े कमरे को दीवारों के द्वारा विभाजन करने पर प्रत्येक भाग एक भिन्न कमरा बन जाता है। एक ही समय में उनमें से किसी भाग में अंधकार हो सकता है और दूसरे भाग में प्रकाश हो सकता है अंधकार और प्रकाशरूप ये दो पर्याय क्या उस बड़े कमरे की हैं ? ये परस्पर विरोधी दोनों पर्यायें उस बड़े कमरे की नहीं है, किन्तु भिन्न-भिन्न भागों की हैं। इन दोनों पर्यायों को एक ही बड़े कमरे की कहना महान भूल है अतः एकगुण की एकसमय में एक ही पर्याय होती है यह निर्विवाद सिद्धान्त है जो कुयुक्ति के द्वारा खंडित नहीं हो सकता है। दीवारों के क्षय हो जाने पर वह बड़ा कमरा एकरूप हो जाता है, तब उस बड़े कमरे की एकसमय में एक ही पर्याय होगी, दो पर्यायें नहीं हो सकतीं ।' - जै. ग. 24-6-76/VI / ज. ला. जैन शक्ति व व्यक्ति शंका- जनसंदेश में लिखा है- "व्यशक्ति की व्यक्तता पर्यायशक्ति है।" इस लक्षण में क्या आपत्ति है ? समाधान-शक्ति का कार्यकारीरूप परिणत हो जाना शक्ति की व्यक्तता है। अन्य परमाणुओं के साथ बंध को प्राप्त होने पर परमाणु में स्कन्धरूप परिणमन करने की शक्ति की व्यक्तता है। शक्ति को व्यक्ति की शक्ति कहना कहाँ तक उचित है, आप स्वयं विचार कर लेवें । भव्यजीव में मोक्ष जाने की शक्ति है । जब जीव मोक्ष को प्राप्त होता है तब उस द्रव्य-शक्ति की व्यक्ति होती है। - जं. ग. 7-2-66 / 1X / र. ला. जैन, मेरठ शंका- जनसंदेश में अष्टसहस्री कारिका ४२ में से 'सबंधा' शब्द पर टिप्पणी "शक्तिरूपेण द्रव्यपर्यायरूपेण था।" उद्धृत करते हुए लिखा है- "इससे स्पष्ट है द्रव्यशक्ति की व्यक्ति का नाम ही पर्यायशक्ति है।" क्या इस टिप्पणी का यह अभिप्राय है ? 1 १. दि०२८-८-७४ को एक पत्र में श्री जवाहरलालजी को आपने लिखा था— जो स्पर्शन इन्द्रिय के द्वारा जाना जाय यह स्पर्शन गुण है। उस गुण के ४ भेद है। प्रत्येक भेद की दो पर्यायें होती है। चार प्रकार के स्पर्श गुण की ४ पर्यायें एक समय में हो सकती है ते चार पर्यायें एक गुण की नहीं है। सामान्य से चेतना गुण एक है। किन्तु उसके दो भेद है, अतः प्रत्येक भेद की भिन्न-भिन्न पर्याय होगी । सामान्य से मूर्तिक गुण एक है ? किन्तु उसके स्पर्श, रस, गन्ध व वर्णः ये चार भेद होते हैं। अत: चारों की पृथक-पृथक पर्यायें होगी। क्या ये चारों एक मूर्तिक गुण की हैं या भिन्न-भिन्न दो भेदों की कल्पना की है ? एक गुण के प्रत्येक भेद की एक समय में एक ही पर्याय होगी, अन्यथा पर्याय का लक्षण बाधित हो जायगा [ क्रमवर्तिनः पर्यायः न तु सहवर्तिनः ] सूक्ष्म तत्य तक पहुँच न होने के कारण इसप्रकार की अनेक भूले होती है "रतनचन्द मुख्तार" 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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