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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] किसी भी गुण की एक समय में दो पर्याय नहीं होती शंका- चेतनागुण की एकसमय में ज्ञान और दर्शनरूप दो पर्यायें होती हैं। इनमें से ज्ञान की प्रत्येकसमय में पांच पर्यायें और दर्शन की चारपर्यायें होती हैं। अतः एक गुण की एकसमय में एकपर्याय होती है यह सिद्धान्त गलत है । ( सोनगढ़ से प्रकाशित सैद्धान्तिक चर्चा ) | समाधान - आत्मा में ज्ञान और दर्शन ऐसे दो भिन्न-भिन्न गुण हैं । इन दोनों गुणों का कार्य प्रकाश करना है | अतः सामान्य से इन दोनों गुणों की चेतना संज्ञा दे दी गई । ज्ञान और दर्शन चेतना की पर्यायें नहीं हैं किन्तु चेतना के भेद हैं। ज्ञान यद्यपि एक गुरण है किन्तु ज्ञानावरणकर्म के कारण उसके पाँच भेद हो जाते हैं । जैसे कमरे में प्रकाश एक ही है, किन्तु दीवार में चार खिड़कियों के द्वारा आने के कारण वह प्रकाश चारप्रकार का हो जाता है। दीवार हट जाने पर पूर्ण प्रकाश है और वह प्रकाश एकप्रकाररूप हो जाता है ! दीवार के कारण जितना अंधकार था वह भी समाप्त हो जाता है । इसीप्रकार ज्ञानावरण कर्म के क्षय हो जाने पर केवलज्ञान एकप्रकाररूप रह जाता है। चार खिड़कियों में से जिस-जिस खिड़की के कपाट बन्द हो जाते हैं उन उन खिड़कियों में से प्रकाश श्राना बन्द हो जाता है और शेष खिड़कियों के आगे पड़दा लगा होने के कारण अल्प प्रकाश श्राता है । यदि पड़दा गहरा होता है, तो प्रकाश अल्पतर हो जाता है । [ ११५९ इसीप्रकार मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान ये चार खिड़कियाँ उस ज्ञानावरणरूप दीवार में हैं । इनके द्वारा छद्मस्थावस्था में ज्ञान होता है। इन चार खिड़कियों में से यदि अवधिज्ञान या मन:पर्ययज्ञान या दोनों के सर्वघातिया स्पधंकोदयरूप कपाट बन्द हैं तो इनके द्वारा ज्ञान नहीं होगा । मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के सर्वथा सर्वघातियास्पर्धकोदयरूप कपाट बन्द नहीं होते, किन्तु देशघातिस्पर्धकोदयरूप पर्दा पड़ा हुआ है । उस पड़दे की विभिन्नता के कारण मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में भी विभिन्नता हो जाती है । ज्ञान के मतिज्ञान आदि चारों भेद कर्मकृत हैं, स्वाभाविक नहीं हैं । स्वाभाविक तो एक केवलज्ञान है । श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा भी है जीवो उवओगमओ, उवओगो णाणदंसणी होई । णावओोगो वुविहो, सहावणाणं विभावणाणं ति ॥ १० ॥ केवलमिबियर हियं, असहायं तं सहावणाणं त्ति । सण्णाणिवर विप्पे विहावणाणं हवे दुविहं ॥११॥ सण्णाणं चउ भेयं, मदिसुद ओही तहेव मण पज्जं । अण्णाणं तिवियत्यं मदिआइ भेद दो चेव ॥१२॥ तह दंसणउवओोगो, ससहावेदर - वियत्पदो दुविहो । केवलमंदिर हियं तं सहाव मिदि भणिदं ॥१३॥ चव अचषखू ओहो तिष्णिवि भणिदं विभावदिच्छित्ति ॥ १४ ॥ [ नियमसार ] जीव उपयोगमय है । उपयोग ज्ञान और दर्शन के भेद से दोप्रकार का है। ज्ञानोपयोग दोप्रकार का है, एक स्वभावज्ञान, दूसरा विभावज्ञान अतीन्द्रिय असहाय जो केवलज्ञान है सो स्वभावज्ञान है । सम्यग्ज्ञान और मिथ्या ज्ञान के भेद से विभावज्ञान उपयोग दोप्रकार का है । मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय के भेद से सम्यग्ज्ञानोपयोग चारप्रकार का है । कुमति, कुश्रुत, कुप्रवधि के भेद से मिथ्या ज्ञानोपयोग तीनप्रकार का है । इसीप्रकार दर्शनोपयोग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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