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________________ ११३६ ] [ पं. रतनचन्द जैन मुख्तार । तथा गोम्मटसार जीवकांड में भी सिद्धों के सिद्धगति, केवलज्ञान; केवलदर्शन, क्षायिकसम्यक्त्व और अनाहारक; ये पांच मार्गणा होतीं हैं, शेष मार्गणा नहीं होती, ऐसा कहा है। इन सब प्रमाणों से सिद्ध होता है कि सिद्धों में क्षायिक चारित्र, क्षायिकदान, क्षायिकलाभ, क्षायिकभोग, क्षायिकउपभोग ये पाँच लब्धि नहीं होती; शेष are क्षायिक लब्धियाँ होती हैं और अरहंत भगवान में नो क्षायिक लब्धि होती हैं; अर्थात् सिद्धों से अरहंतों में अधिक किलब्धि होने के कारण ही सिद्धों से पूर्व अरहंतों को नमस्कार किया है। क्या यह ठीक नहीं है ? समाधान -- शंकाकार ने परमार्थ नहीं समझा है इसीलिये सिद्ध भगवान में चारित्र आदि पांच क्षायिक • लब्धियों का अभाव बतलाया है । घातिया कर्मों के क्षय से जो नौ क्षायिकलब्धियों प्रगट हुई हैं वह आत्मा का निजभाव हैं अर्थात् स्वभाव हैं, उनका सिद्ध भगवान में कैसे अभाव हो सकता है । जो कर्म क्षय को प्राप्त हो गया है उसकी पुनः सत्ता संभव नहीं है, और बिना सत्ता के कर्मोदय हो नहीं सकता और प्रतिपक्षी कर्मोदय के बिना क्षायिक भाव का अभाव नहीं हो सकता । " खविवाणं पुनरुत्पत्ती, निबुआणं पि पुणो संसारितप्यसंगादो ।" ( ज० ६० पु० ५ पृ० २०७ ) अर्थात्-क्षय को प्राप्त हुईं प्रकृतियों की पुनः उत्पत्ति नहीं होती, यदि होने लगे तो मुक्त हुए जीवों का पुन: संसारी होने का प्रसंग उपस्थित होगा । बिना प्रतिपक्षी कर्मोदय के यदि सिद्ध भगवान में क्षायिकचारित्र आदि का अभाव माना जावे तो क्षायिकसम्यक्त्व ज्ञान दर्शन वीर्य का भी अभाव क्यों न मान लिया जाय ? इस प्रकार सिद्ध भगवान् में सभी गुणों का प्रभाव मान लेने पर जीवत्व के प्रभाव का प्रसंग आजायगा । सिद्धभगवान में क्षायिकचारित्रलब्धि के अभाव होने का कोई हेतु भी नहीं दिया है और बिना कारण के चारित्र आदि का अभाव होता नहीं है । "परापेक्ष परिणामित्वमन्यथा तदभावात् ॥ ६।६४ ||" परीक्षामुख अर्थात् — दूसरे सहकारी कारणों की अपेक्षा रखने पर परिणामीपना प्राप्त होता है प्रन्यथा कार्य नहीं हो सकेगा । इससे सिद्ध होता है कि सिद्ध भगवान् में चारित्र का अभाव नहीं है । शंकाकार ने मोक्षशास्त्र अध्याय १० का सूत्र, 'अन्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शन सिद्धत्वेभ्यः ॥ ४ ॥ उद्धृत किया है सो यह सूत्र देशामर्शक है। जिसप्रकार 'तालप्रलंब' एक वनस्पति के नाम से समस्त वनस्पतिकायिक का ग्रहण हो जाता है, उसीप्रकार केवल सम्यक्त्व ज्ञान - दर्शन के नामोल्लेख से शेष छह क्षायिककेवललब्धियों का भी ग्रहण हो जाता है। श्री अकलंकदेव ने कहा भी है -- "अनन्तवीर्यादिनिवृत्ति प्रसङ्ग इति चेत् न, अत्रैवान्तर्भावात् ॥ ३ ॥" रा० वा० १०।४ । अर्थात् - केवल सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, सिद्धत्व के कहने से क्षायिक अनन्तवीर्य आदि की निवृत्ति का प्रसंग श्राजायगा ? ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि इन क्षायिकसम्यक्त्व-ज्ञान-दर्शन में शेष क्षायिकल विषयों का अन्तर्भाव हो जाता है, अर्थात् ग्रहण हो जाता है । सिद्ध भगवान के जो सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, प्रगुरुलघु, अवगाहना, सूक्ष्म, निराबाध, आठ गुण कहे हैं। वे आठ कर्मों के अभाव की अपेक्षा कहे हैं। मोहनीयकर्म सम्यक्त्व और चारित्र दो गुणों को घातता है । कर्मोदय सामान्य सिद्धत्वभाव को घातता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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