SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११२८ ] [ प० रतनचन्द जैन मुख्तार 1 और समस्त द्रव्यों को अवगाहन देता है, इसलिये आकाशद्रव्य का अवगाहनहेतुत्व लक्षण कहा गया है। सिद्धों में गुणों के अतिरिक्त अन्य भी अनन्तगुण हैं । जैसे—– अकषायत्व, वीतरागता, निर्नामता आदि । —../......../............- / ........ शंका- सिद्धों में सुख किस कर्म के अभाव से होता है ? समाधान- इस सम्बन्ध में कोई एकान्त नियम नहीं है । श्री पद्मनन्दि आचार्य ने मोह के क्षय से सिद्ध भगवान में सुख स्वीकार किया है- 'सौख्यं च मोहक्षयातु ।' संस्कृत टीका- 'सिद्धानां सौख्यं वर्तते । कस्मात् ? मोहक्षयात् ।' अर्थ – मोहनीय कर्म के क्षय से सुख प्रगट होता है । सिद्ध भगवान के मोह का क्षय हो जाने से सुख वर्तता है। श्री सागर आचार्य ने भी कहा है- 'निर्वाणसुखम् तत्सुखं मोहक्षयात् ।' अर्थात - निर्वाणसुख मोहक्षय से होता है । सुख का लक्षण अनाकुलता है (अनाकुलत्वलक्षणं सौख्यं ) । रागद्वेष अर्थात् कषाय से आकुलता होती है । चारित्रमोह का क्षय हो जानेपर रागद्वेष कषाय का प्रभाव हो जाने से अनुकूलता स्वयमेव हो जाती है। इस अपेक्षा से चारित्रमोह के क्षय से सुख प्रगट होता है, ऐसा आषवाक्य है । श्री अमृतचन्द्राचार्य ने 'स्वभावप्रतिघाताभाव हेतुकं हि सौख्यं' अर्थात् सुख का कारण स्वभाव ( ज्ञान दर्शन ) के घातक ( ज्ञानावरण-दर्शनावरण ) कर्मों का क्षय है, ऐसा सुख का लक्षण किया है । अतः इनके तथा श्री कुन्दकुन्दाचार्य के मतानुसार चारों घातियाकर्मों के क्षय से सुख होता है, क्योंकि जहाँ पर स्वभाव का घात है वहाँ पर सुख नहीं हो सकता । अयाबाधगुण की अपेक्षा, वेदनीयकर्म के क्षय से सुख उत्पन्न होता है, क्योंकि वेदनीयकर्म सुख गुण का प्रतिबन्धक है। 'आयुष्य वेदनीयोदययोजवोर्ध्वगमनप्रतिबन्धकयोः सत्त्वात् ।' अर्थात्- - ऊर्ध्वगमनस्वभाव का प्रतिबन्धक आयुकर्म का उदय श्रीर सुखगुण का प्रतिबन्धक वेदनीयकमं का उदय अरिहंतों के पाया जाता है । जस्सोदएण जीवो सुहं व दुक्खं व दुविहमणुहवइ । तरसोदयवखरण दु जायदि अध्यस्थणंतसुहो ॥ अर्थ - जिस वेदनीयकर्म के उदय से जीव सुख और दुख इसप्रकार की दो अवस्थाओं का अनुभव करता है, उसी वेदनीयकर्म के क्षय से आत्मस्थ अनन्तसुख उत्पन्न होता है । 'सिद्धानाम् अक्षजम् इन्द्रियउत्पन्नम् सुखं दुःखं न । कस्मात् ! वेदनीयकर्मविरहात् नाशात् ॥ ' अर्थात् — सिद्ध भगवान के इन्द्रियजनित सुख दुःख नहीं है, क्योंकि वेदनीयकर्म का क्षय हो गया है । इसप्रकार भिन्न- निन्न अपेक्षाओं से सुखोत्पत्ति के विषय में अनेक कथन हैं जो वास्तविक हैं। जो मोह के क्षय से सुख नहीं मानता उसने 'स्याद्वाद' को नहीं समझा । Jain Education International For Private & Personal Use Only - जं. 1. 6-2-67/18/ .. ***: 2000 www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy