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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ११२७ ओवइया बंधयरा उवसम खय-मिस्सया य मोक्खयरा । भावो दु पारिणामिओ करणोभय-वज्जियो होवि ॥३॥ अर्थ-औदायकभाव बंध करनेवाले हैं; औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिकभाव मोक्षके कारण हैं, तथा पारिणामिकभाव बन्ध और मोक्ष दोनों के कारण से रहित हैं (ध पु. ७ पृ ९) इस सबका सार यह है कि रागभाव बन्ध का कारण है और वीतरागता मोक्ष का कारण है। कहा भी है रत्तो बंधादि कम्म मुचदि जीवो विराग संपत्तो। एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज ॥१५०॥ ( समयसार ) अर्थात्-रागी कर्मों को बांधता है, वीतरागी कर्मों से छूट जाता है, यह जिन भगवान का उपदेश है। -जं. ग. 23-5-63/IX| प्रो. मनोहरलाल जैन सिद्धों में किस कर्म के क्षय से कौनसे गुण का प्रादुर्भाव होता है ? शंका-किस कर्म के क्षय से कौनसा गुण सिद्धों में प्रगट होता है ? सिद्धों में अवगाहनस्व नामका गुण किस कर्म के क्षय से उत्पन्न होता है ? और उसका क्या कार्य है ? समाधान-श्री अमृतचन्द्राचार्य ने 'तत्त्वार्थसार' के मोक्षतत्त्व वर्णन के श्लोक ३७.४० में कर्मक्षय की अपेक्षा सिद्धों के गुणों का कथन किया है। ज्ञानावरणहानान्ते, केवलज्ञानशालिनः । दर्शनावरणच्छेदादुद्यत् केवलवर्शनाः ॥३७।। वेदनीयसमुच्छेदादध्यानाधत्वमाश्रिताः। मोहनीयसमुच्छेवात्सम्यक्त्वमचलं श्रिताः ॥३८॥ आयुः कर्मसमुच्छेदात्, परमं सौम्यमाश्रिताः। नामकर्मसमुच्छेवादवगाहनशालिनः ॥ ३९ ॥ गोत्रकर्मसमुच्छेदात्सदाऽगौरव लाघवाः । अन्तरायसमुच्छेदादनन्तवीर्यमाश्रिताः ॥४०॥ इन श्लोकों में यह बतलाया गया है-ज्ञानावरणकर्म के नाश से केवलज्ञान, दर्शनावरण के नाश से केवल दर्शन, वेदनीयकर्म के नाश से अव्याबाध, मोहनीयकर्म के नाश से सम्यक्त्व, आयुकर्म के नाश से सौम्य, नामकर्म के नाश से अवगाहन, गोत्रकर्म के नाश से अगुरुलघू प्रौर अन्तरायकर्म के नाश से अनन्तवीर्य इसप्रकार आठकों के नाश से सिद्धों में आठ गुण होते हैं। यह कथन परमात्मप्रकाश गाथा ६१ की टीका में भी है। तथा ध.पू. ७ पृ. १४ पर भी है। सिद्धों में अवगाहनगण नामकर्म के क्षय से होता है। इसका कार्य अनन्तानन्तसिद्धों को प्रवगाह देना है। उस क्षेत्र में स्थित एकेन्द्रियजीवों को तथा पुद्गल आदि पाँचद्रव्यों को अवगाहन देना। किन्तु समस्त जीवों को समस्त पुद्गलों को, सम्पूर्ण धर्मद्रव्य को, सम्पूर्ण अधर्मद्रव्य को, समस्त कालद्रव्यों को, सम्पूर्ण आकाशद्रव्य को अवकाश देने में असमर्थ होने के कारण सिद्धों का अवगाहनहेतत्व लक्षण नहीं कहा गया है। आकाशद्रव्य सम्पूर्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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