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________________ व्यक्तित्व धौर कृतित्व ] [ ११२५ पूर्व - पूर्व पर्याय का व्यय और नवीन नवीनपर्याय का उत्पाद होता रहता है । यह परिणमन शुद्ध होने के कारण सशपरिणमन होता है। आत्मा में प्रतिसमय जानने की क्रिया होती रहती है। अथवा ज्ञेयपदार्थों में प्रतिक्षण उत्पाद व्यय होता रहता है अतः केवलज्ञान में भी ज्ञेयों की अपेक्षा प्रतिसमय परिणमन ( उत्पाद, व्यय) होता रहता है ( प्र. सा. गा. १९, श्री जयसेनाचार्य की टीका; ज. ध. पु १ पृ. ५१ व ५५ वृहद्रव्यसंग्रह पृ. ४६ संस्कृत टीका ) पूर्व-पूर्व पर्याय के व्यय की अपेक्षा सिद्धों में भी प्रतिसमय उत्पाद व व्यय सिद्ध हो जाता है । - ग. 13-6-63 / 1X / ब्र. सुखदेव शुद्धात्मा में योगशक्ति का प्रभाव शंका योग आत्मा की शक्ति है और शक्ति का कभी अभाव होता नहीं है। अतः मुक्तजीवों में भी योगशक्ति होना चाहिये ? समाधान- सिद्धों में योगशक्ति नहीं है, क्योंकि प्रात्म-परिस्पन्दरूप किया का प्रभाव है। सिद्धों में तो निष्क्रियशक्ति है। श्री समयसार में भी कहा है-" सकलकर्मोपरमप्रवृत्तात्मप्रदेश नं व्यद्यरूपा निष्क्रियत्वशक्तिः " अर्थात् समस्तकमों के उपरम से प्रवृत्त ग्रात्मप्रदेशों की निष्पन्दता स्वरूप निष्क्रियत्वशक्ति है। इसका अभिप्राय यह है कि कर्मों के कारण आत्मप्रदेशों में परिस्पंद होता था, कर्मों का अभाव हो जाने पर मुक्तआत्मा में स्वाभाविकनिष्क्रियत्वशक्ति प्रगट हो जाती है। सिद्धों में जब निष्क्रियत्वशक्ति है तो योगशक्ति अर्थात् क्रियावतीशक्ति नहीं हो सकती। यहाँ पर भी परिस्पंद को क्रिया कहा है। गो० जीवकाण्ड में निम्नलिखित गाथा आई है; जिसके आधार पर मुक्तजीवों में योगशक्ति कही जाती है। पोग्गलविवाई देहोदयेण मणवयण - काय - जुत्तस्स । जीवस्स जा हु सत्ती कम्मागमकारणं जोगो ॥ अर्थात् - पुद्गलविपाकी शरीरनामकर्मोदय से, मन, वचन, काययुक्त जीव की उसशक्ति को योग कहते हैं जो कर्मों के आगमन में कारण है । इस गाथा में "मन, वचन, काय से युक्त जीव की शक्ति है" इस पदपर से स्पष्ट कर दिया कि यह शक्ति संसारीजीव की है, मुक्तजीव की नहीं है, क्योंकि मुक्तजीव मम, वचन, काययुक्त नहीं होते हैं। " वुद्गल विपाकी नामकर्म के उदय से" इस पद से यह स्पष्ट करा दिया कि संसारी जीव की यह शक्ति स्वाभाविक शक्ति नहीं है, किन्तु कर्मोदयकृत है। क्योंकि जहाँ तक शरीर नामकर्म का उदय रहता है वहाँ तक अर्थात् तेरहवें गुणस्थान तक कर्मों के आगमन में कारणरूप शक्ति अर्थात् योग रहता है। चौदहवें गुणस्थान में शरीरनाम कर्मोदय का प्रभाव हो जाता है अतः इस शक्तिरूप उपयोग का भी अभाव हो जाता है। इसी प्रकार मुक्त जीवों में भी कर्मों के भागमन में कारणरूप शक्ति का प्रभाव है। श्री कुन्दकुन्दादि आचार्यों ने मुक्त जीवों में योगशक्ति का सद्भाव नहीं बतलाया है। आर्य ग्रन्थ के आधार के बिना मुक्तजीवों में योगशक्ति कहना उचित प्रतीत नहीं होता सिद्ध भगवान में चारित्र का अभाव और योग का सद्भाव मानना कहाँ तक ठीक है ? विद्वान इस पर गम्भीरता से विचार करें। - जै. ग. 28-2-66/IX / र. ला. जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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