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________________ ११२४ ] [पं. रतनचन्द जैन मुख्तार : बह मनियों के द्वारा शरीर की शक्ति से धारण किया जाता है। सम्यग्दर्शन संज्ञी अर्थात मनवाले के ही होता है प्रसंज्ञी जीव के सम्यग्दर्शन नहीं होता। द्रव्यमन के बिना भावमन होता नहीं (ध. पु. १ पृ. २६. ) । इसप्रकार शारीरिक शक्ति तथा द्रव्यमन भी मोक्ष प्राप्ति में सहकारीकारण है। अन्तमुहतं की स्थितिवाले ध्यान के लिये भी उत्तमसंहनन की आवश्यकता कही गई है। अतः जिसके संहनन की कमी है उसके वैराग्य तो हो सकता है, किन्तु शक्ति के अभाव में कारण शुद्धात्मस्वरूप में स्थित नहीं रह सकता, अतः उसको मोक्ष नहीं होता। कहा भी है"विशिष्ट संहननादि शक्तयभावाग्निरंतरं तत्र स्थातुं न शक्नोति ।" "संहननादिशक्तयाभावाच्छुद्धात्मस्वरूपं स्थातुम. शक्यत्वाद्वर्तमानभवे पुण्यबंध एव, भवान्तरे तु परमात्मभावनास्थिरत्वे सति नियमेन मोक्षो भवति ॥" (पंचास्तिकाय गाया १७० और १७१ पर श्री जयसेनाचार्य की टीका ) अर्थात-संहननादि की शक्तिके अभाव के कारण शुद्ध आत्मस्वरूप में स्थित होने के लिये अशक्य होने से वर्तमानभव में पुण्यबन्ध करके भवान्तर में नियम से मोक्ष जाता है। यद्यपि संहनन पुद्गलविपाकी कर्मप्रकृति है तथापि सर्वोत्कृष्ट संहनन बिना मोक्ष नहीं जा सकता। अतः संहननकी कमी मोक्ष के लिये बाधक कारण है। -जं. ग. ............."/""| अ. पन्नालाल छहों संस्थानों से मोक्ष शंका-छहों संस्थानों में से कौनसे संस्थान से मोक्ष है ? क्या वामनसंस्थान से भी मोक्ष है ? समाधान-छहों संस्थान का उदय तेरहवेंगुणस्थान तक है क्योंकि संस्थाननामकर्मपुद्गल विपाकी है। तेरहवेंगुणस्थान के अन्त में छहोंसंस्थानों की उदयव्युच्छित्ति होजाती है ( गो. क. गाथा २७१ टीका)। चौदहवेंगुणस्थान में किसी भी संस्थान का उदय नहीं रहता और मोक्ष चौदहवेंगुणस्थान से होता है। तेरहवेंगुणस्थान में जब छहोंसंस्थानों में से किसी भी एक संस्थान का उदय संभव है तो वामनसंस्थान का उदय भी हो सकता है। किन्तु उससे शरीर में इतना सूक्ष्म वामनपना होता है कि शरीर विडरूप नहीं हो जाता । कर्म का अनुभव उदय है।। प्राकृत पंचसंग्रह पृ० ६७६ ) । कर्म फल देने के समय में 'उदय' संज्ञा को प्राप्त होता है ( जयधवल पु० १ पृ० २९१)। -णे. ग. 4-7-63/IX/ अ. सुखदेव सिद्धों में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य शंका-सिद्धों में भी उत्पाद, व्यय, ध्रुव कहा जाता है। व्यय किसप्रकार है ? समाधान-सिद्धजीव द्रव्य को शुद्ध अवस्था है। उस शुद्धअवस्था में जीवद्रव्य भी तो है ही। द्रव्य का लक्षण 'सत्' कहा गया है और 'सत्' को उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यस्वरूप कहा है ( त. सू. अध्याय ५ सूत्र २९, ३०)। प्रतः सिद्धअवस्था में भी जीव के अगुरुलघुगुण द्वारा प्रतिसमय परिणमन होता रहता है । जिसके कारण प्रतिसमय - १. मोक्षस्य कारणमभिष्टुतमत लोके तद्धार्यते मुनिभिटंगबलात्तदन्तात् । [पं. पं. १/११ पूर्वार्ध ] २. एइंदिया बीइंदिया तीइंदिया चरिंदिया असण्णिपंचिदिया एकमि चेव मिच्छाइद्विगुणट्ठाणे ॥38॥ [धयल 1/2:१] 3. उत्तमसंहननस्यकाचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तमुहूर्तात् । [ त. सू. ६/२७ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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