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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १११९ समाधान-इस विषय में दो मत हैं । कुछ आचार्य तो चरमशरीर की प्रवगाहना से किंचित् ऊन सिद्धों की अवगाहना का कथन करते हैं। अन्य आचार्य चरमशरीर की अवगाहना का दो तिहाई (३) सिद्धों की अवगाहना का कथन करते हैं। शरीर को उत्कृष्ट अवगाहना ५२५ धनुष है अत: सिदों की उत्कृष्ट अवगाहना ५२५ धनुष बतलाई । ५२५ धनुष का दो तिहाई (3) ३५० धनुष होता है, अतः दूसरे आचार्य ने सिद्धों की उत्कृष्ट प्रवगाहना ३५० धनुष बतलाई । इसीकार जघन्य अवगाहना ३ हाथ का ३ भाग ३ हाथ होता है। तिलोयपण्णत्ती में उक्त दोनों मतों का उल्लेख है । इससमय केवली श्रुतकेवली का प्रभाव यहाँ पर है, अतः यह नहीं कहा जा सकता कि इन दोनों में कौनसा सत्य है। -ज. ग. 25-7-66/IX/प्र. सच्चिदानन्द कुम्हारचक्र तथा मुक्तों को ऊर्ध्वगति में एकदेश साम्य है शंका-सर्वार्थ सिद्धि पृ० ४७० पृ० २० "इसीप्रकार संसार में स्थित आत्मा ने मोक्ष की प्राप्ति के लिये जो अनेक बार प्रणिधान किया है उसका अभाव होने पर भी उसके आवेशपूर्वक मुक्तजीव का गमन निश्चित होता है।" प्रश्न यह है कि मोक्ष के लिये जो प्रयत्न किया उसका आवेश क्या रहता है ? कुम्हार का चक्र तो लगातार वही क्रिया करता रहता है, किंतु इस दृष्टान्त में यह बात नहीं, तब इसका क्या तात्पर्य है ? समाधान-पूर्वप्रयोग के लिये कुम्हार-चक्र का दृष्टान्त देकर यह बतलाया गया है कि चक्र के भ्रमण का कारण जो डंडा उसके न रहने पर भी अथवा हट जाने पर भी जिसप्रकार चक्र घूमता है उसीप्रकार मोक्ष के प्रणिधान का प्रभाव हो जाने पर भी जीव मोक्ष के लिये गमन करता है। यहाँ पर मात्र भ्रमण के कारण का प्रभाव हो जाने पर भ्रमण का होना, इतना दृष्टान्त और दार्टान्त की समानता ग्रहण करनी। यदि दृष्टान्त और दाष्टीत सर्वथा समान हो जाय तो दृष्टान्त ही दार्टान्त हो जायगा। कहा भी है "न हि सर्वोदृष्टान्तधर्मो दार्टान्तिके भवितुमर्हति । अन्यथा दृष्टान्त एव न स्यादिति ।" प्रमेयरत्नमाला २।२। अर्थ-दृष्टान्त का सर्व ही धर्म तो दाष्टन्ति विर्ष होय नाहीं, जो सर्व ही धर्म मिल तो दृष्टान्त नहीं, दार्टान्त ही होय है। अतः कुम्हारचक्र और मुक्तजीवों को ऊर्ध्वगति इन दोनों में एकदेश समानता है सर्वथा समानता नहीं है। -. ग. 27-12-65/VIII/ 2. ला. जन सिद्ध भी कथंचित् सुखी कथंचित् सुखी नहीं, कथंचित् मुक्त कथंचित् अमुक्त शंका-अनेकान्त तो खिचड़ीवाद है। क्या जीव भी कयंचित् अजीव हो सकता है ? क्या सिद्ध भगवान कथंचित् 'सुखी' और कथंचित् 'सुखी नहीं हैं ? क्या सिद्ध भगवान कथंचित मुक्त कथंचित् अमुक्त हैं ? यदि जीव सर्वथा जीव ही है, सिद्ध भगवान सर्वथा सुखी ही हैं और मुक्त ही हैं तो फिर 'क्रमबद्ध पर्याय' को सर्वथा मानने में एकान्त मिथ्यात्व क्यों कहते हो ? 'वस्तु ऐसी भी है और ऐसी नहीं भी है' इसप्रकार का खिचड़ीवाद जनमत में नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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