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________________ १११८ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : इसी गाथा की टीका में श्री जयसेनाचार्य लिखते हैं-"अत्राह शिष्यः रागढषमोहामावे सति निर्जरा. कारणं भणितं सम्यग्दृष्टस्तु रागावयः संति, ततःकथं निर्जराकारणं भवतीति । अस्मिन्पूर्वपक्षे परिहारः। अत्र प्रथे वस्तुवृत्या वीतरागसम्यग्दृष्टेग्रहणं ।" अर्थात-शिष्य पूछता है कि-राग-द्वेष मोह का अभाव निर्जरा का कारण कहा गया है, किन्तु सम्यग्हष्टि के रागादि होते हैं उसके निर्जरा कैसे हो सकती है ? आचार्य उत्तर देते हैं कि इस समयसार ग्रंथ में वास्तव में वीतरागसम्यग्दृष्टि को ग्रहण करना चाहिये ( इस समयसार ग्रंथ में वीतरागसम्यग्दृष्टि की अपेक्षा से कथन है )। इससे सिद्ध है कि वीतरागसम्यग्दृष्टि के भोगसामग्री में राग नहीं है, अतः वीतरागता के कारण निर्जरा होती है, किन्तु सरागीजीव के भोगसामग्री में राग है अतः राग के कारण उसके बंध भी होता है।" -जं. ग. 14-10-65/X/प्र. पन्नालाल मोक्षतत्त्व नित्यनिगोद से निकलकर सीधे मनुष्य बनकर मोक्ष की प्राप्ति शंका-ऐसा कथन कहाँ मिलेगा जिससे यह सिद्ध हो सके कि नित्यनिगोव से निकलकर जीव सीधा मनुष्य होकर केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष जा सकता है ? समाधान-"अनादिकाले मिथ्यात्वोदयो कान्नित्यनिगोवपर्यायमनुभूय भरतचक्रिणः पुत्रा भूत्वा भद्रविवद्धनादयस्त्रयोविशत्यधिकनवशतसंख्याः पुरुदेवपावमूले धतधर्मसारा: समोरोपितरत्नत्रयाः अल्पकालेनैव सिद्धाः संप्राप्तानंतज्ञानाविस्वभावाश्चशब्दान्निरस्त-द्रव्य-भाव-कर्मसंहतपश्च ।" ( मूलाराधना पृ० ६६ ) अर्थ-अनादिकाल से मिथ्यात्व का तीव्र उदय होने से अनादि काल पर्यंत जिन्होंने नित्य निगोद पर्याय का अनभव लिया था ऐसे ९२३ जीव निगोद पर्याय छोड़कर भरत चक्रवर्ती के भद्र विवर्धनादि नाम धारक पत्र उत्पन्न हुए थे। उनको आदिनाथ भगवान के समवसरण में द्वादशांग वाणी का सार सुनने से वैराग्य हो गया। ये राजपत्र इसी भव में सपर्याय को प्राप्त हुए थे। इन्होंने जिनदीक्षा लेकर रत्नत्रयाराधना से अल्पकाल में ही मोक्ष लाभ लिया। -जे. ग. 12-12-66/VII/ र. ला. जैन, मेरठ सिद्धों की अवगाहना के प्रमाण में दो मत शंका-तिलोयपण्णत्ती भाग २ पृ० ८७३ श्लोक ६ में सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना ५२५ धनुष जघन्य ३॥ हाथ बतलाई है, किन्तु गाया ११ में उत्कृष्ट अवगाहना ३५० धनुष जघन्य हाय बतलाई है, ऐसा क्यों? १. सम्यग्दृष्टि की महिमा दिखावने को जे तीव्रबंध के कारण भोगादिक प्रसिद्ध थे, तिन भोगादिक कों होते संत श्री श्रद्धाननक्ति के बल ते मन्दबन्ध होने लगा ताों तो गिन्या नाहीं अर तिसही बल ते निर्जरा विशेष होने लागी; तातें उपचार ते भोग को भी बन्ध का कारण न कहया निर्णरा का कारण कह्या विचार किए भोग निश के कारण होय, तो तिसकौ छोडि सम्यग्हष्टि मनिपद का ग्रहण काहे को करें। मो0 10 प्र0अ0 ८ पृ० ४१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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