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________________ ११०८ ] पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । द्रव्यनिर्जरा के विपाकजा और अविपाकजा ऐसे दो भेद हैं। विपाकजा का अकामनिर्जरा ऐसा भी नाम है । तथा अविपाकजानिर्जरा को सकामनिर्जरा भी कहते | योग्यकाल में कर्म का उदय होकर उसकी निर्जरा होती है उसको विपाकजा अकामनिर्जरा कहते हैं तथा तपश्चरणादिक उपायों से अपक्वकर्म को पक्वावस्था में लाकर उसका एक देश नष्ट होना वह सकामनिर्जरा है। इनको औपक्रमिकनिर्जरा भी कहते हैं । पहिली को विपाकनिर्जरा अनौपक्रमिक निर्जरा ऐसा भी कहा जाता है । इन दो निर्जराम्रों का स्पष्टीकरण उदाहरण द्वारा किया जाता है - जैसे आम्रफल, पनसफल वगैरह की पक्वता अर्थात् मधुररसादि परिणति योग्यकाल में होती है तथा पुरुष प्रयत्न से भी वह की जाती है । तथा ज्ञानावरणादिकर्म योग्य समय पर उदयावलि में प्राकर फल देने लगता है । जिसकाल में जो कर्मफल देने योग्य हैं उसीकाल में उसका उदय होकर फल प्राप्ति होना यह विपाकनिर्जरा है । और जो कर्म तपोबल से तथा सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्र के बल से उदयावलि में लाकर उपभोगा जाता है वह श्रविपाक निर्जरा है । मुमुक्षु लोगों को शुभाशुभ परिणामों के अभाव से कर्मों का संवर होकर शुद्धोपयोग युक्त तप से अविपाक निर्जरा होती है। तथा इतर लोगों को योग्यकाल में कर्म उदय में आकर अपना सुख-दुःखादि रस देकर निर्जीणं होता है वह सविपाक निर्जरा है । व्रतसम्यक्त्व के श्रविपाकनिर्जरा कब होती है, इसका विवेचन शंका-सम्यग्दृष्टि के बिना तप के क्या अविपाकनिर्जरा संभव है ? - जै. ग. 3-9-70 / VI/ ब. छोटेलाल समाधान - सम्यग्दष्टि के बिना तप के भी व्रत धारण करने से तथा अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना व दर्शनमोह के क्षपणा के समय तीनकरण द्वारा अविपाकनिर्जरा संभव है । कहा भी है " सम्यग्दृष्टिभावक विरतान्त वियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमको पशांतमोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुण निर्जराः ।। ४५ ।। " ( तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ९ ) Jain Education International मिञ्छावो सद्दिट्ठी असंख गुणकम्म- णिज्जरा होदि । तत्तो अणुवयधारी तत्तो य महस्वई णाणी ॥१०६ ॥ पढम कसाय - चउन्हं विजोजओ तह य खवय सोलो य । दंसण-मोह-तियस्स य तत्तो उवसमग चत्तारि ॥ १०७ ॥ खवगो य खीण-मोह सजोइ-जाहो तहा अजोईया | एदे उवर उर्वार असंख गुण-कम्म- णिज्जरया || १०८ || (स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा) मिध्यादृष्टि अनिवृत्तिकरण के चरमसमय में जो निर्जरा होती है उससे प्रसंख्यातगुणी निर्जरा सम्यक्त्वोपत्ति के समय होती है । उससे असंख्यातगुणी अणुव्रतधारी के, उससे असंख्यातगुणी महाव्रती के, उससे असंख्यात - अनन्तानुबन्धका विसंयोजन करनेवाले के, उससे असंख्यातगुणी दर्शनमोहनीय की क्षपणा करनेवाले के कर्मनिर्जरा होती है । असंख्यातगुणितश्रेणी से कर्मनिर्जरा के कारण व्रत हैं । "असंखेज्जगुणाए सेडीए कम्म णिज्जरणहेदू वदं णाम ।" (धवल पु० ८ पृ० ८३) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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