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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] खवए य खीणमोहे जिरणे य णियमा भवे असंखेज्जा । (१) सम्यक्त्वात्पत्ति (२) श्रावक, (३) महाव्रती, (४) अनन्तानुबन्धीकषाय का विसंयोजक, (५) दर्शनमोक्षपक, (६) चारित्रमोह उपशामक, (७) उपशान्त कषाय, (८) क्षपक, (९) क्षीणमोह, ( १ ) स्वस्थान जिन, (११) योगनिरोध में प्रवृत्त जिन इन ग्यारह स्थानों में उत्तरोत्तर प्रसंख्यातगुणीनिर्जरा होती है । यह अविपाकनिर्जरा है । - ज. ग. 19-9-74 /X/ ज. ला. जैन, भीण्डर श्रविपाक श्रौर सविपाक निर्जरा का स्वरूप शंका-अकाम और सकामनिर्जरा का क्या स्वरूप है ? सविपाक और अविपाकनिर्जरा में से किसभेव में शामिल हो सकती है ? समाधान - काम का प्रथं इच्छा है और पूर्वकाल में बँधे हुए कर्मों का झड़ना निर्जरा है । अतः जो कर्म बिना इच्छा के झड़ते हैं वह अकामनिर्जरा है। जो कर्म इच्छापूर्वक तप आदि के द्वारा निर्जीणं किये जाते हैं वह सकाम निर्जरा है । सविपाक निर्जरा को प्रकामनिर्जरा कहते हैं और श्रविपाकनिर्जरा को सकामनिर्जरा कहते हैं, क्योंकि अविपाकनिर्जरा इच्छापूर्वक तप आदि के द्वारा की जाती है और सविपाक निर्जरा में कर्म बिना इच्छा यथाकाल झड़ते जाते हैं । कहा भी है [ ११०७ चिरबद्ध कम्मणिवहं जीव पवेसा हु जं च परिगलइ । सा णिज्जरा पत्ता दुविहा सविपक्क अविपक्का ॥१५७॥ सयमेव कम्मगलणं इच्छारहियाण होइ सत्ताणं । सविपक्क णिज्जरा सा अविपक्क उवायखवणादो || १५८ || ( नयचक्र ) Jain Education International चिरकाल से बँधे हुए कर्मों का जीवप्रदेश से जो परिगलन है वह निर्जरा कही गई है। सविपाक और विपाक के भेद से वह निर्जरा दो प्रकार की है । जीवों के इच्छारहित जो कर्मों का स्वयमेव गलना है वह सविपाकनिर्जरा है। जो उपाय द्वारा कर्मों की निर्जरा की जाती है वह अविपाकनिर्जरा है । उपाय इच्छा पूर्वक होता है । फलटन से प्रकाशित कुन्दकुन्दस्वामी विरचित 'मूलाचार' में भी लिखा है पुष्वकम्मसउणं तु णिज्जरा सा पुणो हवे दुविहा । पढमा विवागजावा विदिया अविवागजावा य ॥ ५८ ॥ काण उवाएणय पचंति जधा वणव्फविफलाणि । तध कालेन तवेण य पचचंति कदाणि कम्माणि ।। ५९ ॥ पृष्ठ १४६ पर अर्थ इसप्रकार लिखा है - पूर्वकाल में बँधे हुए कर्म का आत्मा से थोड़ा-थोड़ा जो निकल जाना उसको निर्जरा कहते हैं । इस निर्जरातत्त्व के दो भेद हैं। पहली विपाकनिर्जरा तथा दूसरी अविपाकनिर्जश । उदय होने पर जो कर्मानुभव जीव को आता है उसको सविपाकनिर्जरा कहते हैं । अनुभव के बिना तपश्चरणादि कारणों के द्वारा कर्म का विनाश होना यह अविपाकनिर्जरा का लक्षण है ॥ ५८ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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