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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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धवल पु० १२ पृ० ४६८ पर जो निर्जरा का कथन है वह सम्यग्दृष्टि तथा अतिशयविशुद्धियुक्त, अर्थात् सम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा कथन है । सम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्याडष्टि के प्रायोग्यलब्धि में ४६ प्रकृतियों का संवर हो जाता है । तथा अपूर्वकरण व अनिवृत्तिकरण ( करणलब्धि ) में अविपाकद्रव्यनिर्जरा विशुद्धपरिणामों द्वारा होती है। अन्य मिथ्याष्टियों के उदय व उदीरणा द्वारा सविपाकनिर्जरा होती है।
-पत्र 27-4-74/..."| ज. ला. जैन भीण्डर अविपाक निर्जरा का स्वरूप, उत्पत्ति-गुणस्थान तथा द्रव्यनिर्जरा के भेदों के विवेचन शंका-अविपाक भाव निर्जरा किसे कहते हैं ? कौन से गुणस्थान से चालू होती है ?
समाधान-आत्मा के जिन भावों अर्थात् परिणामों के द्वारा अनुदय प्राप्त कर्मों का गालन किया जाता है, उन परिणामों को अविपाकनिर्जरा कहते हैं। इन परिणामों में तप की मुख्यता है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान चारित्र, द्वादश अनुप्रेक्षा, परीषहजय, उपसर्ग-जय, विषय-कषाय-जय प्रादि भावों के द्वारा अविपाकनिर्जरा होती है, स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गा० १०६ से ११४ ।
यह निर्जरा प्रथमोपशमसम्यक्त्व के अभिमुख जीव के अपूर्वकरण से प्रारम्भ होती है। कहा भी है
"प्रथमोपशमसम्यक्त्वोत्पत्ती करणत्रय परिणाम चरमसमये वर्तमानविशुद्धिविशिष्ट-मिथ्यादृष्टेः आयुर्वजित ज्ञानावरणादि सप्तकर्मणो यद्गुणश्रेणिनिर्जराद्रव्यम् ।"
इस मिथ्याष्टि के विशिष्ट विशुद्ध परिणाम अविपाकनिर्जरा के कारण हैं । इस प्रविपाक निर्जरा में कर्म निर्जीर्ण रस होकर झड़ते हैं ।
शंका-सविपाकनिर्जरा और अविपाकनिर्जरा ये वो भेद द्रव्यनिर्जरा और भावनिर्जरा इन दोनों के हैं या किसी एक के?
समाधान-सविपाकनिर्जरा और अविपाकनिर्जरा ऐसे दो भेद द्रव्य कर्म-निर्जरा के हैं। कहा भी है"निर्जरा वेदना विपाक इत्युक्तम् । सा द्वधा अबुद्धिपूर्वा कुशलमूला चेति । तत्र नरकादिषु कर्मफलविपाकजा अबुद्धिपूर्वा, सा अकुशलानुबन्धी परिषहजये कृते कुशलमूला, सा शुभानुबन्धा निरनुबन्धा चेति ।" त. राज. ९७७ ।
वेदना के विपाक को निर्जरा कहते हैं । निर्जरा दो प्रकार की है (१) अबुद्धिपूर्वा (२) कुशलमूला । नरकाहि गतियों में कर्मफल विपाक से होनेवाली अबुद्धिपूर्वा निर्जरा होती है, जिससे प्रकुशल ( अकल्याणकारी कर्मों ) का बंध होता है। परीषहजय आदि से कुशलमूला ( कल्याणकारी ) निर्जरा होती है, जो शुभ का बंध कराती है या बंध बिलकुल ही नहीं कराती।
"पूजितकर्म परित्यागो निर्जरा । सा द्विप्रकारा वेदितव्या । कुतः ? विपाकजेतरा चेति । तत्र चतुर्गता. बनेकजातिविशेषावपूणिते संसारमहार्णवे चिरं परिभ्रमतः शुभाशुभस्य कर्मण औयिकमावोवीरितस्य क्रमेण विपाककालप्राप्तस्य यस्य यथा सवस घतान्यतरविकल्पवद्धस्य तस्य तेन प्रकारेण विद्यमानस्य यथानुभवोक्यावलिस्रोतोऽनुप्रविष्टस्यारब्धफलस्य स्थितिक्षयादुदयागतपरिभुक्तस्य या निवृत्तिः सा विपाकजा निर्जरा। यस्कर्माप्राप्त विपाककालमोपक्रमिक क्रियाविशेषसामर्थ्यावनुवीणं बलादुदीर्य उदयावलि प्रवेश्य वेद्यते आम्रपनसादिषाकवतसा अविपाकनिर्जरा। ( रा. वा० ८।२३) 'तपसा हि अभिनवकर्मसबन्धाभावः पूर्वोपचितकर्मक्षयश्च मविपाकनिर्जराप्रतिज्ञानात् ।"
रा० वा० ९।३।
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