SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 240
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११०४ ] [ पं. रतनचन्द जैन मुख्तार " मिथ्यादर्शन प्राधान्येन यत्कर्म आस्त्रवति तन्निरोधाच्छेपे सासादन सम्यग्दृष्ट्यादौ तत्संवरो भवति । कि पुनस्तत् ? मिथ्यात्वमपुसकवेव नरकायुर्नरकगत्येक द्वित्रिचतुरिन्द्रियजा तिहुण्ड संस्थानासम्प्राप्तासृपा टिकासंहनन नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यातपस्थावर सूक्ष्मापर्याप्त कासाधारणशरीरसंज्ञक षोडशप्रकृति लक्षणम् ।" सर्वार्थसिद्धि ९।१ । अर्थ - मिथ्यादर्शन की प्रधानता से जिन कर्मों का आस्रव होता है, उनका मिथ्यादर्शन के प्रभाव में सासादन आदि शेष गुणस्थानों में संवर होता है। मिथ्यात्व नपुंसकवेद, नरकायु, नरकगति, एकेन्द्रियजाति, द्वौन्द्रियजाति, श्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, असंप्राप्तासृपाटिकासंहनन, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आतप स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्तक और साधारणशरीर इन सोलह कर्मप्रकृतियों का दूसरे आदि गुणस्थानों में संवर होता है । निद्रानिद्रा आदि २५ प्रकृतियों का आस्रव अनन्तानुबन्धीकर्मोदय से होता । तीसरे आदि गुणस्थानों में अनन्तानुबन्धी उदयाभाव में इन २५ कर्म प्रकृतियों का संवर हो जाता है अर्थात् सम्यग्मिथ्यादृष्टि तीसरे गुणस्थान में और असंयतसम्यग्दष्टि चौथे गुणस्थान में ( १६ + २५ ) ४१ कर्मप्रकृतियों का संवर होता है । दूसरे, तीसरे, चौथे गुणस्थानों में सविकल्पअवस्था होते हुए भी संवरतत्त्व पाया जाता है । निर्जरातत्व उदय निर्जरा के भेदोपभेदों का विवेचन शंका- द्रव्यनिर्जरा के कितने मेव होते हैं ? सविपाक-अविपाक किसके भेव हैं, द्रव्यनिर्जरा के वा भावनिर्जरा के ? क्या भावनिर्जरा के सविपाक - अविपाक भेद नहीं किये जा सकते हैं ? स्थितिकाण्डकघात तथा अनुमागकाण्डक से संजात निर्जरण किसमें अन्तत किया जा सकता है ? धवल पु० १२।४६८ पर जो कथन है वह अतिशय विशुद्धियुक्त मिध्यात्वियों की अपेक्षा है । यहाँ 'अतिशयविशुद्धियुक्त' से क्या अभिप्राय ? समाधान - निम्नलिखित विवरण से एतद्विषयक स्पष्टीकरण हो जायगा - निर्जरा सविपाक ( अकाम ) Jain Education International द्रव्य निर्जरा उदीरणा अविपाक ( सकाम ) - जै. ग. 2-11-72 / VII / रोशनलाल अविपाक सविपाक भाव निर्जरा नहीं होती स्थिति व अनुभाग अपकर्षण For Private & Personal Use Only भाव निर्जरा स्थितिकाण्डकघात व अनुभाग काण्डकघात www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy