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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १०६१ ___समाधान-दर्शनमोहनीयकर्म की तीनप्रकृतियां हैं-(१) मिथ्यात्वप्रकृति, (२) सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति, (३) सम्यक्त्वप्रकृति । कहा भी है "तत्र वर्शनमोहनीयं त्रिभेदम् सम्यक्त्वं मिथ्यात्वं तदुभयमिति । तत्र यस्योदयात् सर्वजप्रणीतमार्गपराङ्गमुखस्तत्त्वार्थबद्धान निरुत्सुको हिताहितविचारासमों मिथ्यावृष्टिर्भवति तन्मिथ्यात्वम् । तदेव सम्यक्त्वं शुभपरिणाम. निरुद्धस्वरसं यवोदासीन्येनावस्थितमात्मनः श्रद्धानं न निरुणद्धि, तद्वदयमानः पुरुषः सम्यग्दृष्टिरित्यभिधीयते । तदेवमिथ्यात्वं प्रक्षालन विशेषात्क्षीणमवशक्ति कोद्रववत्सामिशुद्धस्वरसं तदुभयमित्याख्यायते । सम्यङमिथ्यात्वमिति यावत् । यस्योदयावात्मनोऽर्धशुद्धमदकोद्रवौवनोपयोगापादितमिश्रपरिणामवदुभयात्मको भवति परिणामः।" सर्वार्थसिद्धि ८९। अर्थ-दर्शनमोहनीय के तीनभेद हैं-सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिध्यात्व । जिसके उदय से यह जीव सर्वज्ञप्रणीत मार्ग से विमुख, तत्त्वार्थों के श्रद्धान करने में निरुत्सुक, हिताहित का विचार करने में असमर्थ ऐसा मिथ्याष्टि होता है, वह मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय है। वही मिथ्यात्व जब शुभपरिणामों के कारण अपने स्वरस विपाक को रोक देता है मौर उदासीनरूप से अवस्थित रहकर आत्मा के श्रद्धान को नहीं रोकता है तब वह सम्यक्त्व दर्शनमोहनीय है। इस सम्यक्त्व दर्शनमोह के उदय का वेदन करनेवाला सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। वही मिथ्यात्व प्रक्षालन विशेष के कारण क्षीणाक्षीण मदशक्ति वाले कोदों के समान अर्धशुद्ध स्वरस वाला होने पर तदु. भय कहा जाता है। इसी का दूसरा नाम सम्यग्मिथ्यात्व है । इसके उदय से अधंशुद्ध मदशक्ति वाले कोदों और ओदन के उपयोग से प्राप्त हुए मिश्र परिणाम के समान उभयात्मक परिणाम होता है। प्रवचनसार गाथा ४५ की टीका में जो 'द्रव्यमोह' पद आया है, सोनगढ़ वाले यद्यपि उसका अर्थ मिथ्यात्व प्रकृति करते हैं, तथापि उनका ऐसा अर्थ करना आगम अनुकूल नहीं है, क्योंकि मिथ्यात्व के उदय में यह जीव सर्वज्ञ प्रणीत मार्ग से विमुख रहता है तथा तत्त्वार्थों के श्रद्धान करने में निरुत्सुक रहता है। प्रतः मिथ्यात्व प्रकृति के उदय में शुद्धात्म भावना सम्भव ही नहीं है । प्रतः 'द्रव्यमोह' से सम्यक्त्व प्रकृति दर्शन मोहनीय कर्म ग्रहण करना चाहिये। मंत्र शक्ति के द्वारा निविष किया हुआ विष जैसे मारने वाला नहीं होता है, वैसे ही शुभ परिणामों के द्वारा जब मिथ्यात्व का स्वरस विपाक रुक कर सम्यक्त्व प्रकृति रूप हो जाता है तो वह सम्यक्त्व का घातक नहीं होता है। अतः इस सम्यक्त्व प्रकृति दर्शन मोहनीय कर्मोदय का वेदन करने वाला जीव वेदक सम्यग्दृष्टि होता है। "कधमेवस्स कम्मस्स सम्मतववएसो ? सम्मत्तसहचारादो।" धवल पु० १३ पृ० ३५८ । अर्थ-इस दर्शनमोह कर्म की सम्यक्त्व संज्ञा कैसे है ? सम्यग्दर्शन का सहचारी होने से इस दर्शनमोह द्रव्यकर्म की सम्यक्त्व संज्ञा है। वेदक सम्यक्त्व के काल में मिथ्यात्व व मिश्र प्रकृति का स्वमुख उदय नहीं होता है, किन्तु संक्रमण द्वारा सम्यक्त्व प्रकृति रूप परमुख उदय होता रहता है। इसलिये प्रात्मा भावमोह अर्थात् मिथ्यात्व रूप नहीं परिणमन करती है। मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से होने वाले १६ प्रकृति-बंध तथा अनन्तानुबन्धी के उदय से होने वाला २५ प्रकृति-बंध अर्थात निम्न ४१ प्रकृतियों का बंध नहीं होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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