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________________ १०६० ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार: इसीलिये श्रीमदुमास्वामी आचार्य ने "परे मोक्षहेतू ॥२९॥" सूत्र द्वारा धर्मध्यान को मोक्ष अर्थात् कर्मक्षय का कारण बतलाया है। दि. जैन प्राचीन आचार्यों का इतना स्पष्ट कथन होने पर जो शुभभाव को मात्र बंध का ही कारण हैं कर्मनिरा का कारण नहीं मानते, उनके मत में मोक्ष कभी प्राप्त हो ही नहीं सकता, क्योंकि शुद्धभाव तो मोहनीयकर्म के अभाव में ही सम्भव है, क्योंकि मोहनीयकर्म के अभाव में ही वीतरागभाव होता है। सुविविवपयत्यमुत्तो संजमतव संजदो विगदरागो। समणो समसुहदुक्खो भणियो सुद्धोवओगो त्ति ॥१४॥ प्रवचन जिन्होंने पदार्थों को और सूत्रों को भले प्रकार जान लिया है, जो संयम और तप युक्त हैं, जो विगतराग हैं और जिनके सुख-दुःख समान हैं ऐसे श्रमण को शुद्धोपयोगी कहा है । अर्थात् जिनके राग की कणिका भी विद्यमान है वे शुद्धोपयोगी नहीं हैं, शुभोपयोगी हो सकते हैं । जिस जीव के मिथ्यात्व और कषाय दोनों पाप विद्यमान हैं। उसके शुभ भाव अर्थात् आत्मकल्याणरूप भाव नहीं होते। सम्यग्दृष्टि के मिथ्यात्व पाप का अभाव हो गया है अत उसके शुभोपयोग होता है । जिसके मिथ्यात्व और कषाय दोनों पापों का अभाव हो गया है ऐसे वीतरागसम्यग्दृष्टि के शुद्धोपयोग होता है। –णे. ग. 11-9-69/VII/ बसन्तकुमार कथंचित् अवत सम्यग्दृष्टि प्रबन्धक है शंका-अव्रत सम्यग्दृष्टि के बन्ध नहीं होता है, ऐसा 'समयसार' ग्रंथ में कहा है सो कैसे ? समाधान-आगम में अनेक दृष्टियों से कथन हैं। जहां पर सम्यग्दष्टि को अबन्ध कहा है वहाँ पर यह समझना चाहिए कि सम्यग्दृष्टि के अनन्तसंसार का कारण ऐसा बन्ध नहीं होता, क्योंकि उसके मिथ्यात्व व अनन्तानुबन्धीकषाय का उदय न होने से मिथ्यात्व व अनन्तानुबन्धीचतुष्क का बग्ध नहीं होता है। इन पांच प्रकृतियों के अतिरिक्त उसके अन्य छत्तीसप्रकृतियों का भी बन्ध नहीं होता है, क्योंकि उनकी बन्धव्यच्छित्ति पहले और दूसरे गुणस्थान में हो जाती है। सम्यग्दृष्टि के केवल ४१ प्रकृति का बन्ध नहीं होता है। शेष प्रकृतियों का बन्ध तो अपने-अपने गुणस्थान अनुसार प्रतिसमय दसवेंगुणस्थान के अन्ततक होता रहता है। सूक्ष्मसाम्परायगुण क सम्यग्दृष्टि सर्वथा अबन्धक नहीं है। अव्रत सम्यग्दृष्टि को सर्वथा अबन्धक मानना प्रागमविरुद्ध है। अनन्तसंसार का कारण ऐसा बन्ध सम्यग्दृष्टि के नहीं होता है, इस अपेक्षा से कहीं-कहीं पर अव्रतसम्यग्दृष्टि को अबन्धक कहा है। -जे'. सं. 2-8-56/VI) मो ला. उरसेवा 'द्रव्यमोह' व "भावमोह" से अभिप्राय शंका-प्रवचनसार गाथा ४५ को तात्पर्यवृत्ति टीका में श्री जनसेनाचार्य ने लिखा है-"द्रव्यमोहोदयेपि सति यदि शुद्धात्मभावनाबलेन मावमोहेन न परिणमति तवावन्धो न भवति ।" यहाँ पर 'द्रव्यमोह' से 'सम्यक्त्व प्रकृति' और 'भावमोह' से 'मिथ्यात्व' ग्रहण करना चाहिये या अन्य कुछ गूढ़ रहस्य है ? किसका बन्ध नहीं होता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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