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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ) [ १०८७ एकदेश परित्याग, अपहृतसंयम, सराग चारित्र, शुभोपयोग ये एकार्थवाची शब्द हैं । सर्व परित्याग परमोपेक्षा संयम वीतराग चारित्र शुद्धोपयोग ये एकार्थवाची शब्द हैं । वीतरागनिविकल्पसमाधिकाल में सर्व रागद्वेषपरित्यागरूप जो वीतरागरत्नत्रय है वह शुद्धोपयोग है मौर सविकल्पावस्था में जो एकदेश रागद्वेष परित्यागरूप सरागरत्नत्रय है वह गुभोपयोग है। शुद्धोपयोगरूप रत्नत्रय की उत्तम दशा है। और शुभोपयोगरूप-रत्नत्रय जघन्यरत्नत्रय है । समयसार गाथा १७२ में जघन्यरत्नत्रय से बंध का होना बतलाया है। जघन्यरत्नत्रय शुभोपयोगरूप है अतः बंध को शुभोपयोग का अपराध बतलाया है। यदि प्रशस्तराग को ही शुभोपयोग कहा जावे तो शुभोपयोग का लक्षण प्रपहृतसंयम या सरागचारित्र नहीं हो सकता था। प्रथमोपशमसम्यक्त्व के सम्मुख करणलब्धि में प्रथमोपशमसम्यक्त्वो.पत्तिकाल में तथा पंचम, षष्ठगुणस्थान में जो प्रतिसमय असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा होती है वह भी शुभोपयोग का फल है। स्वस्थानअप्रत्तसंयत के शुभोपयोगरूप धर्मध्यान से निर्जरा होती रहती है। इस प्रकार शुभोपयोग से संवर-निर्जरा भी तथा बंध भी दोनों परस्पर विरुद्ध कार्य होने में कोई बाधा नहीं है । कहा भी है एकस्मिन् समवायावत्यन्त विरुद्धकार्ययोरपि हि । इह वहति धृतमिति यथा व्यवहारस्तादृशोऽपि रूढिमितः ॥२२१॥[प. सि. उ.] यहाँ पर यह बतलाया गया है कि शुद्ध घी जलाने का कारण नहीं है उसोप्रकार पूर्णरत्नत्रय भी बंध का कारण नहीं है। अग्नि के संयोग से जब घी का स्पर्शगुण विकारी हो जाता है अर्थात् उष्ण हो जाता है तो उस घी से जलाने का व्यवहार ( कार्य ) देखा जाता है । उसीप्रकार मोहनीयकर्मोदय के संयोग से रत्नत्रय जब असमग्रता को प्राप्त हो जाता है अर्थात् जघन्यभाव को प्राप्त हो जाता है तो वह जघन्यरत्नत्रय बंध का भी कारण हो जाता है। श्री अमृतचन्द्राचार्य गृहस्थ के प्रशस्तराग को परम्परामोक्ष का कारण बतलाते हैं "स्फटिकसम्पर्केणाकंतेजस इवैधसां रागसंयोगेन शुद्धात्मनोऽनुभवात्क्रमतः परमनिर्वाणसौख्यकारणस्वाच्च मुख्यः।" प्रवचनसार पृ० ६०१ । जैसे ईधन को स्फटिक के संपर्क से सयं के तेज का अनुभव होता है और इसलिए वह क्रमशः जल उठता है, उसीप्रकार गृहस्थ को राग के संयोग से शुद्धात्मा का अनुभव होता है और इसलिए वह राग क्रमशः परमनिर्वाणसौख्य का कारण होता है। ऐसा प्राचार्य ने प्रवचनसार में कहा है। विधूतमसो रागस्तपः श्रतनिबन्धनः । संध्याराग इवाकंस्य जन्तोरभ्युदयाय सः॥१२३॥ आत्मानुशासन अन्धकार को नष्ट कर देने वाले प्राणी के जो तप और शास्त्र विषयक अनुराग होता है वह सूर्य की प्रभातकालीन लालिमा के समान है उससे स्वर्ग व मोक्ष होता है। इसप्रकार यह एकान्त नहीं है कि राग से बंध ही होता है और रत्नत्रय से बंध नहीं होता है। आशा है विद्वत मण्डल शांत चित्त से द्वादशांग के सूत्रों पर जो 'महाबंध' में लिपिबद्ध हैं, विचार करने की कृपा करेंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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