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________________ १०८६ [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : वर्शनमात्मविनिश्चितिरात्म परिज्ञान मिष्यते बोधः । स्थितिरात्मनि चारित्रं कुत एतेभ्यो भवति बन्धः ॥२१६॥ पुरुषार्गसिप पाय अपनी आत्मा का विनिश्चय सम्यग्दर्शन, प्रात्म-परिज्ञान सम्यग्ज्ञान और आत्मा में स्थिरतारूप सम्यकचारित्र ऐसे वीतराग-निर्विकल्परूप शुद्धरत्नत्रय से बन्ध कैसे हो सकता है अर्थात् नहीं हो सकता है। यह शुद्धनय का कथन है। असमनं भावयतो रत्नत्रयमस्ति कर्मबन्धो यः। स विपक्षकृतोऽवश्यं मोक्षापायोन बन्धनोपायः ॥२११॥ येनांशेन सदृष्टिस्तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ॥२१२।। येनांशेन ज्ञानं तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति । येनांशेन त रागस्तेनांशेनास्य बन्धमं भवति ॥२१॥ येमांशेन चरित्रं तेनांशेनास्य बन्धनं मास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ॥२१४॥ ( पुरुषार्थ सिद्धय पाय ) असम्पूर्ण रत्नत्रय की भावना करनेवाले के जो शुभकर्म का बन्ध है, वह बन्ध विपक्ष-कृत अर्थात् सम्पूर्ण रत्नत्रय से विपक्ष असमग्र रत्नत्रयकृत होने से अवश्य ही मोक्ष का उपाय है, बन्ध ( संसार ) का उपाय नहीं है, यह कथन मशुद्धनिश्चयनय की दृष्टि से है । विकलरत्नत्रय से जो पुण्यबन्ध होता है वह मोक्ष का कारण है, संसार का कारण नहीं है। सम्माविट्ठी पुण्णं ण होइ संसार कारणं णियमा। मोक्खस्स होइ हेड जइ वि णियाणं ण सो कुणई ॥४०४॥ ( भावसंग्रह) जितने अंश से सम्यग्दर्शन है उतने अंश से बन्ध नहीं, जितने अंश से ज्ञान है उतने अंश से बन्ध नहीं, जितने अंश से चारित्र है उतने अंश से बन्ध नहीं तथा जितने अंश से राग है उतने अंश से बंध होता है। यह कथन शुद्धनय की दृष्टि से है। जिस वीतरागनिर्विकल्पशुद्ध (पूर्ण) रत्नत्रय का कथन श्लोक २१६ में है उसी शुद्धष्टि से श्लोक २१२. २१४ में कथन है, अन्यथा 'तत्त्वार्थसार' के कथन से अर्थात स्ववचन से विरोध आजायगा। दि. जैन आचार्यों के वचनों में परस्पर विरोध होता नहीं है । पुरुषार्थसिद्धय पाय गाथा २२० के प्रथं पर विचार किया जाता है रत्नत्रयमिह हेतुनिर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य । आस्रवति यत्तु पुण्यं शुभोपयोगोऽयमपराधः ॥२२०॥ शुद्धरत्नत्रय निर्वाण का ही कारण है अन्य का कारण नहीं है। जो पुण्य का प्रास्रव होता है, यह शुभोपयोग अर्थात् असमग्ररत्नत्रय का अपराध है । "एकदेशपरित्यागस्तथा चापहृतसंयमः सरागचारित्रं शुभोपयोग इति यावदेकार्थः। सर्वपरित्यागः परमो. पेक्षासंयमो वीतरागचारित्रं शुद्धोपयोग इति यावदेकार्थः।" ( प्रवचनसार पृ० ५५२ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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