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________________ १०७८ ] [पं. रतनचन्द जैन मुख्तार । इस उपशांत मोहछमस्थवीतराग ग्यारहवेंगुणस्थान की अवस्था को ध्यान में रखकर श्री अमृतचन्द्राचार्य ने पंचास्तिकाय गाथा १४९ की टीका में इसप्रकार लिखा है। "रागाविभावानामभावेदव्यमिथ्यात्वासंयमकषाययोगसद्धावेऽपि जीवा न बध्यन्ते"। रागादि भावों का प्रभाव होने से द्रव्यमिथ्यात्व ( मिथ्यात्वकर्म), द्रव्य असंयम ( अप्रत्याख्यानावरणादि कर्म ), द्रव्यकषाय ( क्रोधादिकर्म ), द्रव्ययोग के सद्भाव ( सत्त्व ) में जीव बंधते नहीं हैं । दसवें गुणस्थानतक चारित्रमोहनीयकर्म का उदय रहता है, उस उदय के अनुरूप जीव के रागादिरूप परिणाम भी होते हैं और रागादि परिणामों के कारण जीव के बंध भी होता है। ऐसा संभव नहीं है कि द्रव्यमिथ्यात्व का तो उदय हो और जीव के मिथ्यास्वरूप भाव न हो। मिथ्यात्वकर्मोदय होने पर जीव के मिथ्यात्वभाव अवश्य होंगे, क्योंकि अपने फल को उत्पन्न करने में समर्थ जो कर्म की अवस्था है, वह उदय है। श्री अमृतचन्द्राचार्य ने गाया ५३ की टीका में कहा भी है "यानि स्वफलसंपादनसमर्थकर्मावस्थालक्षणान्युक्यस्थानानि ।" दसवेंगुणस्थान में आत्मपरिणामों में विशुद्धता बहुत अधिक होती है और चारित्रमोहनीयकर्मोदय बहुत सूक्ष्म होता है तथापि उस सूक्ष्मलोभ कर्मोदय के अनुरूप उस शक्तिशाली सम्यग्दृष्टिजीव को सूक्ष्यलोभरूप परिणमन करना ही पड़ता है, इसीलिये इस दसवेंगुणस्थान का नाम सूक्ष्मसाम्पराय है । "यदि जीवगतरागाद्यमावेपि द्रव्यप्रत्ययोदयमात्रेण बंधो भवति तहि सर्वदेव बंध एव । कस्मात् ? संसारिणां सर्ववैव कर्मोदयस्य विद्यमानत्वादिति ।" ( श्री जयसेनाचार्यकृत टीका ) "यदि जीव के रागपरिणाम के अभाव में द्रव्यप्रत्ययोदय (द्रव्ययोगोदय ) मात्र से बंध होने लगे तो सर्वदा बंध होगा, क्योंकि संसारीजीव के सर्वदा कर्मोदय रहता है।" इसके आधार पर यदि कोई यह कहे कि मात्र मिथ्यात्वादि कर्मोदय से बंध नहीं होता तो उसका ऐसा कहना उचित नहीं, क्योंकि श्री जयसेनाचार्य ने स्वयं गाथा १५७ की उत्थानिका में इसप्रकार लिखा है कि मिथ्यात्वादि कर्मोदय होने पर जीव के सम्यक्त्वादि गुणों का घात हो जाता है अर्थात् मिथ्यात्वादि प्रगट हो जाते हैं। "अथ मोक्ष हेतुभूतानां सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रानां जीवगुणानां वस्त्रस्य मलेनेव मिथ्यात्वाविकर्मणा प्रतिपक्ष. भूतेन प्रच्छादने दर्शयति ।" प्रत: 'द्रव्यप्रत्ययोवयमात्रण' से द्रव्ययोग का ग्रहण करना चाहिये, मोहनीयकर्मोदय को नहीं ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि मोहनीयकर्मोदय होने पर रागादिक अवश्य होंगे और कर्मबन्ध भी अवश्य होगा। मोहनीयकर्म के अतिरिक्त अन्य कर्मोदय से बंध नहीं होता है। कहा भी है "ओदइया बंधयरा त्ति वत्ते ण सम्वेसिमोवइयाणं भावाणं गहणं, गदि-जाविभावीणं वि ओदइयभावाणं बंधकारणत्तप्पसंगा। जस्स अण्णयवदिरेगेहि णियमेण जस्सण्णयवदिरेगा उवलंभंति तं तस्स काजमियरं च कारणं इदि णायादो मिग्छतादीणि चेव बंधकारणाणि ।" धवल ७ पृ० १०। औदयिकभाव बन्ध के कारण हैं ऐसा कहने पर सभी औदयिक भावों का ग्रहण नहीं समझना चाहिये, क्योंकि वैसा मानने पर गति, जाति आदि नामकर्मसम्बन्धी प्रोदयिकभावों के भी बंध के कारण होने का प्रसंग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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