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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १०७७ स. सि. अ. ७ सूत्र १ की टीका में यह शंका उठाई गई है कि व्रत आस्रव का कारण नहीं है, क्योंकि । संवर के कारणों में इसका अन्तर्भाव होता है । इसका उत्तर देते हुए श्री पूज्यपादाचार्य ने कहा है-'यह कोई दोष नहीं, वहाँ निवृत्तिरूप संवर का कथन करेंगे और यहां प्रवृत्ति देखी जाती है हिंसा, असत्य और अदत्तादान आदि का त्याग करने पर अहिंसा, सत्यवचन और दी हुई वस्तु का ग्रहणआदिरूप क्रिया देखी जाती है। दूसरे ये व्रत गुप्तिप्रादिरूप संवर के अङ्ग हैं । जिस साधु ने व्रतों की मर्यादा करली है वह सुखपूर्वक संवर करता है।' स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा गाथा ९५ में भी कहा है-सम्यक्त्व, देशवत, महावत, कषायों का जीतना और योगों का अभाव ये सब संवर के नाम हैं । सम्यग्दर्शन के होने पर मिथ्यास्व और अनन्तानुबन्धी कषायोदय का अभाव हो जाने से मिथ्यात्व के उदय से बंधनेवाली १६ प्रकृति और अनन्तानुबन्धी के उदय से बंधनेवाली २५ प्रकृति इस प्रकार ४१ प्रकृतियों का संवर हो जाता है। देशवत के ग्रहण करने पर अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय का अभाव हो जाने से, अप्रत्याख्यानावरण कषायोदय से बन्धनेवाली दस प्रकृतियों का संवर होजाता है। महाव्रत के ग्रहण करने पर प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय का अभाव हो जाने से प्रत्याख्यानावरण कषायोदय से बंधनेवाली चार प्रकृतियों का संवर हो जाता है। सर्वार्थसिद्धि अध्याय ९ सूत्र १ की टीका । अतः अणुव्रत व महाव्रत १० व ४ प्रकृति के संबर के कारण हैं। समयसार गाथा २६४ में भी व्रतों को बन्ध का कारण नहीं कहा है, किन्तु 'व्रतों में जो अध्यवसान किया जाता है उससे पुण्यबन्ध होता है ऐसा कहा है। गाथा २६२ में भी कहा है निश्चयनय से जीव को मारो या मत मारो जीवों के कर्मबंध अध्यवसाय कर ही होता है यह ही बंध का संक्षेप है।' नय के जानने वाले को अनेकान्त और स्याद्वाद के द्वारा अनेक कथनों का समन्वय कर लेना कोई कठिन नहीं है। कहा भी है-'तीर्थंकरों और आहारक कर्मों का भी जो बध सम्यक्त्व और चारित्र से आगम में कहा है वह भी नय वेत्ताओं को दोष के लिये नहीं है ( पु० सि० उ० श्लो० २१७)। एकान्ती इस कथन में विपरीत धारणा कर लेते हैं। -ज. ग. 25-1-64/VII/ कान्तिलाल "मिथ्यात्वादि के सदभाव में भी रागादि न करें तो बन्ध नहीं होता" इसका स्पष्टीकरण शंका-पंचास्तिकाय गाथा १४९ में लिखा है कि मिथ्यात्वादि कर्मों का सद्भाव रहते हुए भी यदि जीव रागादि न करे तो बन्ध नहीं होगा, यह कैसे संभव है ? समाधान-उपशमसम्यग्दृष्टि जीव उपशमश्रेणी चढ़कर जब उपशांतमोह ग्यारहवें गुणस्थान में पहुंचता है, तब उसके मिथ्यात्वकर्म, अप्रत्याख्यानावरणादिकर्म ( द्रव्यअसंयम), क्रोधादिकषायकर्म, योग का सद्भाव तो है, किन्तु दर्शनमोहनीयकर्म व चारित्रमोहनीयकर्म का पूर्णरूप से उपशम हो जाने के कारण राग-द्वेष उत्पन्न नहीं होता है, इसीलिये उसकी 'छद्मस्थवीतराग' संज्ञा है अतः उसके कर्मबंध अर्थात् स्थिति, अनुभागबंध नहीं होता है, क्योंकि सकषाय अर्थात् रागी-द्वेषी जीव ही कमों से बंधता है। १. 'सम्मत्तं देश वयं महत्ययं तह जओ कसायाणं । ___ एदे संवरणामा जोगा भायो तहा चेव ॥ ५ ॥ २. तहवि अच्चोज्जे सच्चे बंभे अपरिग्महत्तणे चैव । कीर अण्झयसाणं जंतेण दु बण्मए पुण्णं ।। २६४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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