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________________ १०६६ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : द्रव्य एवं भाव बंध के हेतु शंका-आत्मा के अशुद्ध परिणाम ही द्रव्यकर्म के बंध के हेतु हैं, तब अशुद्धपरिणाम का कौन हेतु है ? यदि कहा जाय कि वह अशुद्धपरिणाम द्रव्यकर्म को संयुक्तता से होते हैं, क्योंकि यह उसके कर्म है, किन्तु जीव के अशुद्धपरिणाम तो प्रतिक्षण होते रहते हैं तो इनमें कौन-सा द्रव्यकर्म हेतु पड़ता है ? समाधान-जीव के औपशमिक, क्षायिक, शायोपशमिक औदयिक और पारिणामिक ये पांचभाव हैं। त० सू० अ० २ सू०१ इनमें से औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिकभाव तो मोक्ष के कारण हैं। प्रौदयिकभाव बंध के कारण हैं: पारिणामिकभाव न बंध के कारण हैं और न मोक्ष के कारण हैं। कहा भी है ओवइया बंधयरा उवसम खयमिस्सया य मोक्खयरा। भावो दु पारिणामिओ करणोमयवज्जिओ होदि ।। ध० पु० ७ पृ० ९ अर्थ-औदयिकभाव बंध करने वाले हैं । औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिकभाव मोक्ष के कारण हैं तथा पारिवामिकभाव बंध और मोक्ष दोनों के कारण से रहित हैं। "मोवइया बंधयरा ति वृत्ते ण सम्वेसिमोवइयाणं भावाणं गहणं गवि-जाविआदीणं पि मोदइयभावाणं बंधकारणत्तप्पसंगा। ..." जस्स अण्णय वदिरेगेहि णियमेण जस्सण्णय-वदिरेगा उवलंमंति तं तस्स कज्जमियरं च कारणं इदि णायावो मिच्छत्तादीणि चेव बंधकारणाणि ।" (ध. पु.७ पृ.१०) "औदयिकभाव बंध के कारण हैं, ऐसा कहने पर सभी औदयिकभावों का ग्रहण नहीं समझना चाहिये, कयोंकि वैसा मानने पर गति, जाति आदि नामकर्मसम्बन्धी औदयिकभावों के भी बंध के कारण होने का प्रसंग प्रा जायगा। जिसके अन्वय और व्यतिरेक के साथ नियम से जिसके अन्वय और व्यतिरेक पाये जावें वह उसका कार्य और दूसरा कारण होता है । इस न्याय से मिथ्यात्व आदि ( मिथ्यात्व, कषाय ) ही बंध के कारण हैं।" मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमावकषाययोगा बन्ध-हेतवः ॥१॥ सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्त स बन्धः ॥२॥ (त० सू० अ०८) मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये बंध के कारण हैं । पूर्वकर्मोदय से जीव कषायसहित होता है अर्थात् ऐसा सकषायजीव कर्मों के योग्य नवीन पुद्गलों को ग्रहण करता है वह बंध है। दसवेंगुणस्थानतक कषाय का उदय निरंतर रहता है जिससे जीव निरंतर सकषाय होता रहता है और सकषाय होने के कारण उसके नवीनकर्मों का बंध प्रतिक्षण होता रहता है। -जं. ग. 18-3-71/VII/ रो. ला. जैन सभी जीवों के अनादिकालीन बन्ध है जो कथंचित् असमान है शंका-जीव के कर्म का सम्बन्ध अनादिकाल से है वह सब जीवों के एक-सा ही होता है या कम-ज्यादा? अगर एक-सा ही होता है तो अनादि से चारों गतियां न होकर एक ही गति सिद्ध होती है और अगर कम-ज्यादा होता है तो इसका क्या कारण ? समाधान-अनादिसम्बन्ध में यह प्रश्न ही नहीं होता कि सब जीवों के एक-से ही कर्मों का सम्बन्ध होता है या कम-ज्यादा । चारों गतियों के जीव अथवा सिद्धजीव निगोद से ही निकले हैं फिर भी वे अनादि से हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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