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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [१०६५ भावबन्ध का उपादान कारण शंका-"भावबंध के विवक्षित समय से अनन्तरपूर्वक्षणवर्ती योग-कषायरूप आत्मा की पर्याय विशेष को भाव बंध का उपादान कारण कहा है ।" अनन्तरपूर्ववर्तीक्षण से क्या आशय है ? समाधान-जिन चेतनभावों से द्रव्यकर्म बँधते हैं वह भावबंध है । "बज्झवि कम्मं जेण दु चेदण भावेण भावबंधो सो।" अर्थ-जिस चेतनभाव से कर्म बंधता है वह भावबन्ध है। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग इन चेतनभावों से कर्म बंधता है। मिथ्यावर्सनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः ॥८॥१॥ मोक्षशास्त्र अर्थ-मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ( ये चेतनभाव ) कर्मबंध के कारण हैं। वह कर्मबंध प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बंध के भेद से चार प्रकार का है । उनमें से प्रकृतिबंध व प्रदेशबंध का योग कारण है और स्थिति व अनुभागबंध का कषाय कारण है । श्री द्रव्यसंग्रह में कहा भी है पडिदिवि अणुभागप्पदेश भेदादु चदुविधो बंधो । जोगा पडि पदेसा ठिदिअणुभागा कसायदो होति ॥३३॥ अर्थ-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन भेदों से द्रव्यबंध चारप्रकार का है। योगरूप चेतनभाव से प्रकृतिबंध व प्रदेशबंध होता है और कषायरूप चेतनभाव से स्थिति, अनुभागबंध होता है। इससे सिद्ध होता है कि भावबंध में योग और कषायरूप भावों की मुख्यता है। प्रतिक्षण की योग-कषायरूप आत्मा की पर्याय भावबंषरूप है। इसीलिए दसवें गुणस्थानतक प्रत्येक समय जीव के कर्मबंध होता रहता है। विवक्षितक्षण से मिला हुआ पूर्वक्षण अर्थात् Just Before क्षण को अनन्तरपूर्ववर्तीक्षण कहते हैं । -जे. ग. 4-7-66/IX/म. ला. जैन मिथ्यात्वादि पृथक्-पृथक् भी बन्ध के कारण हैं शंका-पांच मिथ्यात्व, बारह अविरति, पच्चीस कषाय पन्द्रहयोग इन का समुदाय ही बंध का कारण है अथवा ये पृथक्-पृथक् भी बंध के कारण हैं ? समाधान-पांच मिथ्यात्व, बारह अविरति, पच्चीस कषाय और पन्द्रह योग ये पृथक्-पृथक् भी बंध के कारण हैं। चतुर्थगुणस्थान में असंयतसम्यग्दृष्टि के मिथ्यात्वोदयाभाव हो जाने से बारह अविरति, पच्चीस कषाय और पन्द्रह योग इनसे बंध होता है। संयत के बारह अविरति का भी अभाव हो जाने से कषाय व योग से बंध होता है। छद्मस्थवीतराग व सयोगकेवली के कषाय का भी प्रभाव हो जाने से मात्र योग से बंध होता है। इसप्रकार मिथ्यात्व, अविरति, कषाय व योग पृथक्-पृथक् भी बंध के कारण हैं । -पो. ग. 26-2-70/IX/रो ला. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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