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________________ १०४२ ] [ ५० रतनचन्द जैन मुख्तारः गोत्ररूप से और अन्तरायरूप से परिणमाकर जीव परिणमन करते हैं, अतः उन द्रव्यों की कार्माण-द्रव्य वर्गणा संज्ञा है ।। ७५८ ॥ टीकार्थ-ज्ञानावरणीय के योग्य जो द्रव्य हैं वे ही मिथ्यात्व प्रादि प्रत्ययों के कारण पाँच ज्ञानावरणीयरूप से परिणमन करते हैं, प्रन्यरूप से वे परिणमन नहीं करते, क्योंकि वे अन्य के अयोग्य होते हैं। इसीप्रकार सब कर्मों के विषय में कहना चाहिए, अन्यथा ज्ञानावरणीय के जो द्रव्य हैं उन्हें ग्रहणकर मिथ्यात्व आदि प्रत्ययवश ज्ञानावरणीयरूप से परिणमाकर जीव परिणमन करते हैं, यह सूत्र नहीं बन सकता है। इससे सिद्ध है कि जिस समय भावास्रव ( योग ) है उसीसमय द्रव्यास्रव है, क्योंकि कार्माणवर्गणा ( बंध पुद्गलद्रव्य ) बाहर से नहीं आता। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पांच कर्मबंध के प्रत्यय अर्थात हेतु ( कारण ) हैं। जहाँ पर ये पांचों, चार, तीन, दो या एक कारण हैं वहां पर कर्मबंध होता है। कहा भी है "मिथ्यादर्शनाविरति प्रमावकषाययोगा बन्धहेतवः ॥८॥१॥" मोक्षशास्त्र टीका-"मिथ्यावर्शनादीनां बन्धहेतुत्वं समुदायेऽवयवे च वेदितव्यम् ।" सूत्रार्थ-मिथ्यादर्शन, प्रविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये बन्ध के हेतु हैं । टीकार्य-मिथ्यादर्शनादि समुदित और पृथक् पृथक् भी बन्ध के हेतु होते हैं । "सकषायत्वाज्जीवः कर्मणोयोग्यान्पुरगलानावते स बन्धः ॥ ८॥२॥" अर्थ-कषायसहित होने से जीव अर्थात् कषायसहित जीव कर्म के योग्य ( कार्माण वर्गणा ) पुद्गलों को ग्रहण करता है वह बन्ध है । अर्थात् कषायसहित जीव का कर्म के योग्य पुद्गलवर्गणाओं को ग्रहण करना ही बन्ध है। इससे स्पष्ट है कि आस्रव और बन्ध का भिन्नसमय नहीं है । जिससमय में कर्म-आस्रव है उसीसमय में बन्ध है । अन्यथा सकषायजीव के दसवें गुणस्थान के अन्त समय में जो कर्मानव हुआ है, या तो उसका बन्ध अकषाय जीव अर्थात् ग्यारहवें या बारहवें गुणस्थान के प्रथमसमय में बन्ध का प्रसंग पाजायगा या उसके बन्ध के अभाव का प्रसंग आजायगा। जिससे उपयुक्त सूत्र से विरोध पाजायगा। इन दोनों शंकाओं से ऐसा प्रतीत होता है कि शंकाकार का यह विचार है कि कारण और कार्य का भिन्नभिन्न समय होना चाहिये, किन्तु ऐसा एकान्त नहीं है । जिसप्रकार दीपक और प्रकाश इन दोनों की युगपत् उत्पत्ति होती है फिर भी दीपक कारण है और प्रकाश कार्य है। सम्यक् कारण जान, ज्ञान कारज है सोई। युगपत होते हु प्रकाश, दीपक ते होई ॥ छहकाला बौलतराम इसप्रकार एक ही समय में भावानव, द्रव्यास्रव और बन्ध आदि अनेक कार्य होने में कोई बाधा नहीं है। -. ग. 3-1-66/VIII/ म. ला. जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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