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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १०४१ प्रासव तत्त्व प्रास्त्रव का कारण शंका-आस्रव का कारण योग है या कषाय व योग है ? समाधान-आस्रव का कारण योग है । तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ६ सूत्र १ व २ में योग को आस्रव कहा है। साम्परायिकआस्रव में कषायसहित योग प्रास्रव का कारण है । साम्पराय का अर्थ कषाय है। -ज. ग. 31-10-63/IX/र. ला. जैन, मेरठ एक ही समय में भावानव, द्रव्यास्रव व बन्ध होते हैं शंका-जिससमय भावास्रव होता है क्या उसी समय द्रव्यात्रव होता है या उत्तर समय में ? बन्ध भी क्या उसीसमय में होता है या अनन्तर समय में ? समाधान-योग के निमित्त से द्रव्यास्रव होता है । द्रव्यास्रव का यह अर्थ नहीं है कि कार्माणवर्गणा कहीं बाहर से आती है, किन्तु जहाँ पर जीव है वहीं पर बंधयोग्य कार्माण-वर्गणारूप पुद्गलस्कंध भी है। कहा भी है "यनव शरीरावगाढक्षेत्रेजीवस्तिष्ठति बन्धयोग्यपुद्गला अपि तत्रैव तिष्ठन्ति न च बहिर्भागाज्जीव आनयतीति ।" प्रवचनसार गाथा १६८ टीका। अर्थात-जहां पर जीव स्थित है वहीं पर बन्धयोग्य पुद्गल भी स्थित हैं बाहर से जीव नहीं लाता। इसी बात को मोक्षशास्त्र अध्याय ८ सूत्र २४ में 'सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः' द्वारा कहा गया है। श्री अकलंकदेव ने भी इस सूत्र की टीका में कहा है "आत्मप्रदेशकर्मपुदगलकाधिकरणव्यतिरिक्तक्षेत्रान्तरनिवृत्यर्थमेकक्षेत्रावगाह इति वचनं क्रियते।" अर्थात-आत्मप्रदेश और कर्मयोग्य पुद्गलों का एक अधिकरण है तथा अन्य क्षेत्र के निराकरण के लिये सूत्र में एक क्षेत्रावगाह वचन दिया गया है। यह कर्मयोग्य पुद्गलद्रव्य पाठ प्रकार का होता है षट्खंडागम में कहा भी है "णाणावरणीयस्स बसणावरणीयस्स वेयणीयस्स मोहणीयस्स आउअस्स णामस्स गोवस्स अंतराइयस्स जाणि दवाणिघेतूण णाणावरणीयत्ताए दंसणावरणीयत्ताए वेयणीयत्ताए मोहणीयत्ताए माउअत्ताए णामत्ताए गोदत्ताए अंतराइयत्ताए परिणामेदूण परिणमंति जीवा ताणि वव्वाणि कम्मइयवश्ववग्गणा णाम ॥ ७५८ ॥" वर्गणा खंड बन्धन-अनुयोगद्वार धूलिका टीका-णाणावरणीयस्स जाणि पाओग्गाणि वस्वाणि ताणि चेव मिच्छत्तादिपच्चएहि पंचणाणावरणीयसहवेण परिणमंति ण अण्णेसि सहवेण । कुतो ? अप्पाओग्गत्तायो । एवं सन्धेसि कम्माणं वत्तव्वं, अण्णहा णाणावरणीयस्स जाणि बब्वाणि ताणि मिच्छाविपच्चएहि णाणावरणीयत्ताए परिणामेदूण जीवा परिणमंति ति सुत्ताणु. ववत्तीदो। सूत्र-अर्थ-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, प्रायु, नाम, गोत्र और अन्तराय के जो द्रव्य हैं, उनको ग्रहणकर ज्ञानावरणरूप से, दर्शनावरणरूप से, वेदनीयरूप से, मोहनीयरूप से, आयुरूप से, नामरूप से, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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