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________________ १०३० ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : आकाश ( क्षेत्र ) आदि अनेक सहायक कारणों की भी उसे अपेक्षा करनी पड़ती है तब वह मिट्टी का पिण्ड घटस्वरूप होता है। कुम्भकार, चाक आदि बाह्यकारणों की सहायता के बिना अकेले मिट्टी के पिण्ड में घटस्वरूप परिणत होने की सामर्थ्य नहीं। उसीप्रकार पक्षी आदिक द्रव्य जिससमय चलने व ठहरने के लिए उद्यत हैं, बाह्यकारणों की अपेक्षा के बिना उनकी गति व स्थिति नहीं हो सकती। पक्षी आदि की गति और स्थिति में सहायक बाह्यधर्म और अधर्मद्रव्य हैं। तत्त्वार्थसार मोक्षतत्त्व अधिकार के श्लोक ४४ में श्री अमृतचन्द्रसूरिजी लिखते हैं-ततोऽप्यूर्ध्वगतिस्तेषां कस्मानास्तीति चेन्मतिः। धर्मास्तिकायस्याभावात्स हि हेतुर्गतेः परं ॥४४॥ अर्थात् ऐसा पूछा जाने पर कि उन सिद्ध जीवों को उस लोकाकाश से ऊपर गति क्यों नहीं होती? ( यही उत्तर है कि ) गति में हेतु कारण धर्मास्तिकाय का मागे अभाव होने से लोकाकाश के ऊपर सिद्धजीवों की गति नहीं होती। उपयुक्त आगम प्रमाणों से यह भली प्रकार सिद्ध हो गया है कि जीव व पुद्गल में प्रलोकाकाश में भी जाने की शक्ति है, किन्तु बाह्य सहकारीकारण धर्मद्रव्य का अलोकाकाश में अभाव होने के कारण जीव और पदगलों का अलोकाकाश में गमन नहीं है। __ सोनगढ़वालों की, शंकाकार की या अन्य किसी व्यक्ति की जो यह मान्यता है कि 'जीव व पुद्गल में लोक के अन्त तक ही गमन करने की उपादानशक्ति है' यह श्रीमद् भगवान कुन्दकुन्द, श्रीमदमृतचन्द्रसूरि, श्री पज्यवाद स्वामी, श्रीमद्भद्राकलंक देव प्रादि महानाचार्यों के सिद्धान्त के विरुद्ध है। यदि सोनगढ़ मतानुसार यह मान लिया जावे कि जीव व पुद्गल में लोकाकाश तक ही गमन करने की उपादानशक्ति है तो 'धर्मास्तिकायाभावात् सूत्र ८ अ० १० मो० शा०' निरर्थक हो जाएगा और सूत्र अनर्थक होता नहीं है, क्योंकि वचनविसंवाद के कारणभूत रागद्वेष व मोह से रहित जिनभगवान के वचन के अनथंक होने का विरोध है । षट्खण्डागम पु० १० पत्र २८० -जं. सं. 31-10-57 तथा 7-11-57/ ...... सिद्धों में निःसीम शक्ति होते हुए भी धर्म द्रव्य के प्रभाव से प्रागे गमन नहीं होता जीव की गति में जीव और धर्म दोनों कारण हैं शंका-जीव लोकाकाश का द्रव्य है। सिद्ध भगवान भी जीव होने से लोक के द्रव्य हैं, उनमें लोक से बाहर जाने की शक्ति का अभाव है इसलिये सिद्ध भगवान लोक के अन्त में ठहर जाते हैं, कुछ ऐसा कहते हैं। कुछ औसकर कि धर्मद्रव्य के अभाव के कारण सिद्धजीव लोक से आगे नहीं जाते। इन दोनों में से कौनसा कथन ठीक है ? समाधान-जीव का ऊध्वंगमन स्वभाव है। वृहद्व्यसंग्रह गाथा २ में श्री नेमिचन्द्र आचार्य ने "विस्ससोड्ढगई" पद द्वारा जीव का ऊर्ध्वगमन स्वभाव बतलाया है, किन्तु आयुकर्म ने जीव के ऊध्र्वगमन स्वभाव का प्रतिबन्ध कर रखा है। कहा भी है "मायुष्यवेदनीयोदययोर्जीवोर्ध्वगमनसुखप्रतिबन्धकयोः सत्त्वात्"। जीव के ऊर्ध्वगमन स्वभाव का प्रतिबन्धक आयुकर्म का उदय और सुखगुण का प्रतिबन्धक वेदनीयकर्म का उदय प्ररहंतों के पाया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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