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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] । १०२९ तत्त्वार्यवृत्ति में श्री श्रुतसागरसूरिजी इस प्रकार लिखते हैं- 'गत्युपकारकारणं धर्मास्तिकाय' स तु धर्मास्तिकायो लोकान्तात परतोऽलोके न वर्तते तेन मुक्तजीवः परतोऽपि न गच्छति ।' अर्थ-चलने में उपकार का कारण धर्मास्तिकाय है। बह धर्मास्तिकाय लोक के अन्त तक है, लोक से परे नहीं है इसलिये मुक्त जीव का भी लोक से परे गमन नहीं होता है। श्री भास्करनन्दी आचार्य सुखबोध टीका में इस प्रकार लिखते हैं - गत्युपग्रहकारणभूतो धर्मास्तिकायो नोपर्यस्तीत्यलोके गमनाभावः। तदभावे च लोकालोकविभागाभावः प्रसज्यते । अर्थ-गतिरूप उपकार का कारणभत धर्मास्तिकाय लोकान्त के ऊपर नहीं है इसलिये अलोक में गमन नहीं होता। धर्मास्तिकाय के अभाव में भी गमन माना जावे तो लोकालोक के विभाग का अभाव प्राप्त होता है। इसी टीका के अध्याय ५ सत्र १७ में लिखा है-धर्माधर्माऽनभ्युपगमे सर्वत्राकाशे सर्व जीव पुदगलगतिस्थिति प्रसंगाल्लोकालोकव्यवस्था न स्यात् । ततो लोकालोकव्यवस्थाऽन्यथाऽनुपपत्तेधर्माधर्मास्तित्व सिद्धिः। अर्थधर्म व अधर्म द्रव्य के न मानने पर प्रकाश में सर्वत्र सब जीव और पुद्गलों की गति व स्थिति का प्रसंग प्राप्त होने से लोक और अलोक को व्यवस्था न रहेगी। इसलिये अन्य प्रकार से लोकालोक की उत्पत्ति न होने से धर्म व अधर्म द्रव्य की सिद्धि होती है। धीमद् भट्टाकलंकदेव ने राजवातिक अ० ५ सू० १७ टीका में इस विषय को बहुत स्पष्ट किया हैगतिस्थितिपरिणामिनां आत्मपुद्गलानां धर्माधर्मोपग्रहात् गतिस्थिति भवतो नाकाशोपग्रहातू गतिस्थितां स्यातां अलोकाकाशेऽपि भवेतां । अतश्च लोकालोकविभागाभावः स्यात् । अर्थ-चलने और ठहरने वाले जीवों और पदगलों के चलने व ठहरने में धर्म तथा अधर्म का उपकार न हो और आकाश का उपकार हो तो अलोकाकाश में भी जीव और पुद्गलों की गति व स्थिति हो जायगी इसलिए लोक और अलोक के विभाग का अभाव हो जाएगा। नोट-यदि गमन करने वाले द्रव्यों की उपादानशक्ति ही लोक के अग्रभाग तक गमन करने की है और उनमें योग्यता ही प्रलोक में जाने की नहीं है । जैसा कि सोनगढ़ मोक्षशास्त्र पत्र ७९१ पर लिखा है) तो धर्मद्रव्य की क्या आवश्यकता रह जाती है ? आकाशद्रव्य को ही गति में उपकारी मान लेते । जीव और पुद्गल की उपादानशक्ति के कारण अलोक में जीव व पुद्गल का अभाव भी बन जाता, किंतु महानाचार्य श्रीमद्भट्टाकलंक स्वामी ने जीव व पुद्गल की गमन शक्ति तो अलोकाकाश में भी जाने की स्वीकार करके, धर्मास्तिकाय के अभाव के कारण अलोकाकाश में जीव और पुद्गलों का अभाव माना है। सोनगढ़वालों की शक्ति के अभाव' की मान्यता उक्त प्रागमविरुद्ध है। सम्भवतः निमित्त के प्रसंग के भय से उनको ( सोनगढ़वालों को ) उपादानशक्ति सीमित करनी पड़ी, किन्तु श्रीमद् भट्टाकलंकदेव इसी सूत्र १७ अध्याय ५ को वार्तिक ३१ की टीका में इस प्रकार लिखते हैं कार्यस्यानेकोपकरणसाध्यत्वात् तसिद्ध ॥३१॥ इह लोके कार्यमनेकोपकरणसाध्यं दृष्ट यथामृत्पिण्डो घटकार्यपरिणामप्राप्ति प्रतिगृहीताभ्यन्तरसामर्थ्यः बाह्यकुलालदण्डचक्र सूत्रोदककालाकाशाद्यनेकोपकरणापेक्षः घटपर्यायेणाऽऽविर्भवति । नकएवमृपिण्डः कुलालाविबाह्यसाधन सन्निधानेन विना घटात्मनाविर्भवितुं समर्थः। तथा पत्रि. प्रभृतिद्रव्यं गतिस्थितिपरिणामप्राप्ति प्रत्यभिमुखं नान्तरेण बाह्यानेककारण सनिधिगतिस्थिति प्राप्तुमलमितितदुपग्रह. कारण धर्माधर्मास्तिकायः सिद्धिः। __अर्थात् संसार में यह प्रत्यक्ष दीख पड़ता है कि एक कार्य की सिद्धि में अनेक कारणों की प्रावश्यकता पड़ती है। जिसतरह मिट्टी का पिण्ड जिससमय घटकार्यरूप परिणत होता है उस समय घटस्वरूप परिणत होने की अन्तरंग सामर्थ्य तो उस मिट्टी के अन्दर ही है, परन्तु बाह्य में कुम्भकार, दण्ड, चाक, डोरा, जल, काल और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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