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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १०२१ टीका-" स्कंधशब्देनात्र स्कंधाणुभेदभिन्नः द्विधा पुद्गला गृह्यन्ते । ते च कथंभूता ? सक्रियाः । कः कृत्वा ? काल करणेहि, परिणाम निर्वर्तककाला शुद्रभ्यः, खलु स्फुटं ।” परिणाम निर्वर्तक कालद्रव्य द्वारा पुद्गलपरमाणु व स्कन्धों में प्रदेश परिस्पंद पर्यायरूप क्रिया की जाती है। पुग्गलदवे जो पुण विन्माओ, काल पेरिओ होदि । सो णिद्धक्ख सहिदो बन्धो, खलु होइ तस्सेव ॥२०॥ पुद्गलद्रव्य में जो विभावपर्याय होती है, वह कालप्रेरित है। स्निग्ध व रूक्षसहित बन्धरूप पुद्गल की विभावर्याय होती है । अभिप्राय यह है कि काल के अभाव में पुद्गलद्रव्य में विभाव परिणमन नहीं हो सकता है । काल की प्रेरणा से पुद्गल में विभाव होता है । - जै. ग. 9-10-75 // र. ला. जैन, मेरठ "कर्म योग्य पुद्गल" का अर्थ शंका – तत्वार्थ सूत्र अ० ८ सूत्र २ 'सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानावत्तं स बन्धः ।' यह लिखा है। यहाँ पर 'कर्मयोग्य पुद्गल' का क्या अभिप्राय है । समाधान - पुद्गल की तेईस प्रकार की वर्गणा हैं । उनमें से एक कार्माणवर्गणा भी है। यह कार्माणaणा ही कर्मयोग्य पुद्गल है । षट्खण्डागम के पाँचवें वर्गणाखण्ड के निम्नलिखित सूत्रों में कहा भी है "कम्मइयवब्ववग्गणा णाम का ॥७५६॥ कम्मइयदव्यवग्गणा अटूविहस्स कम्मस्स गहणं पवत्तवि ।। ७५७ ॥ णाणावरणीयल्स दंसणावरणीयस्स वेयणीयस्स मोहणीयस्स आउस्स णामस्स गोदस्त अंतराइयस्स जाणि दव्वाणि घेतून जाणावरणीयत्ताए दंसणावरणीयत्ताए वेयणीयत्ताए मोहणीयत्ताए आउअत्ताए नामत्ताए गोदत्ताए अंतराइयत्ताए परिणामेण परिणति जीवा लाणि वव्वाणि कम्मइयदश्ववग्गणा णाम ।। ७५८ ॥ अर्थ --- कार्मारण द्रव्यवर्गंणा क्या है ? ।।७५६ । । कामणद्रव्यवगंणा आठप्रकार के कर्म का ग्रहणकर प्रवृत्त होती है ।।७५७।। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय के जो द्रव्य हैं उन्हें ग्रहण कर ज्ञानावरणरूप से दर्शनावरणरूप से, वेदनीयरूप से, मोहनीयरूप से, आयुरूप से, नामरूप से, गोत्ररूप से और अन्तरायरूप से परिणमाकर जीव परिणमन करते हैं, अतः उन पुद्गल द्रव्यों की कामणद्रव्यवगंरणा संज्ञा है ।।७५८ || रूप तथा वर्ण में भेद शंका-समयसार गाथा ३९२ व ३९३ में 'रूप' और 'वर्ण' शब्द पृथक्-पृथक् प्रयुक्त हुए हैं। इनका पृथक्पृथक् क्या तात्पर्य है, क्योंकि वैसे तो ये दोनों पर्यायवाची हैं। Jain Education International - जै. ग. 26-2-70 / 1X / रो. ला. जैन समाधान - 'रूप' शब्द से प्रयोजन मूर्ति से है । सर्वार्थसिद्धि अ. ५ सूत्र ५ की टीका में, 'रूपं मूर्तिरित्यर्थः' रूप और मूर्ति इनका एक अर्थ है, ऐसा कहा है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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