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________________ १०२० ] का बन्ध- विधान शंका-स्कन्धों में बन्ध किस नियम से होता है ? समाधान - स्कन्ध में सभी प्राठों स्पर्श, दो गन्ध, पाँच रस एवं पाँच वर्ण होते हैं। दो स्कन्धों में परस्पर बन्ध के लिए द्वधिक गुरण का नियम नहीं है । उनमें परस्पर बन्ध रासायनिक नियम से हो जाता है ।" - पत्र 16-2-78 / / ज. ला. जैन, भीण्डर [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : पुद्गल स्कन्ध कालकरण है, जोव पुद्गलकरण है समयसार, शंका- पंचास्तिकाय गाथा ९८ में पुद्गलों को कालकरण कहा, पर जीव को कालकरण नहीं कहा क्यों ? समाधान - जीव स्वभाव से निष्क्रिय है । कर्मोदय के कारण जीव में गति होती है, जो विभाव है । आत्मख्याति टीका के अन्त में परिशिष्ट में ४७ शक्तियों का कथन है । उसमें जीव के गति या क्रियाती शक्ति नहीं कही गई; निष्क्रियत्व शक्ति ( २३ वीं शक्ति ) तो कही है ] अतः कारण न कह कर पुद्गल द्रव्य को कारण कहा है। [ पं० का० ९८ ] यदि मात्र धमं द्रव्य व कालद्रव्य को कारण कहा जाता तो पुद्गल [ अर्थात् शुद्धपुद्गल ] के समान जीव ( शुद्ध जीव ) में भी गति के नित्य सद्भाव का प्रसंग आ जायगा । अतः जीव को कालकरण न कहकर " पुग्गलकरणा" अर्थात् पुद्गलकरण कहा है । जीव की गति में कालद्रव्य को - पत्र 21-4-80/- / ज. ला. जैन, भीण्डर पुद्गलों की विभाव पर्याय काल- प्रेरित होती है शंका- गलद्रव्य की विभावर्याय कालप्रेरित होती है । सो कालप्रेरित से क्या अभिप्राय है ? समाधान - पुद्गलद्रव्य में बंध के कारण विभावपर्याय होती है। पुद्गल में बन्ध स्निग्ध व रूक्षगुण के कारण होता है । जैसा कि 'मोक्षशास्त्र' में 'स्निग्धरूक्षत्वाद बंध:' इस सूत्र द्वारा कहा गया है । पुद्गल परमाणुत्रों का या सूक्ष्मस्कन्धों का बंध में काल के अतिरिक्त अन्यद्रव्य कारण नहीं हो सकता है । इसीलिए श्री कुन्दकुन्दादि आचार्यों ने पुद्गल की विभावपर्याय को कालकृत या कालप्रेरित कहा है । Jain Education International जीवापुग्गल काया सह सविकरिया हवंति ण य सेसा । बुग्गल - करण जीवा, खंधा खलु कालकरणा तु ॥ ९८॥ [ पं. का. ] १. (अ) द्वयोः स्निग्धक्षयोरण्वोः परस्पराश्लेषलक्षणे बन्धे सति द्वयणुकः स्कन्धो भवति । एवं संख्येयासंख्येयानन्तप्रदेशस्कन्धो योज्यः । रा. वा. ५। पृ ४६८ (ब) स्निग्धलक्षगुणनिमित्तः विद्युदुल्काजलधाराग्मिन्द्रधनुरादिविषयः रा. वा. ५२४७ ४८७ (स) एवमुक्तेन विधिना बन्धेसत्यणूनां द्वयणुकाद्यनन्तानन्तप्रदेशावसानस्कन्धोत्पत्तिर्वेदितव्या । रा. या. ५३धारा ४६६ इन उक्त तीनों प्रकरणों से लगता है कि स्कन्धों का परमाणु से तथा स्कन्ध का स्कन्ध से भी स्निग्धरूक्ष गुण निमित्तक ही बन्ध होता है । —सम्पादक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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