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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १०१७ पुद्गल : स्कन्ध स्कन्ध रूप परिणमे बिना शब्द पर्याय नहीं उत्पन्न होगी शंका-मन्ध होने पर क्या कोई नवीनता आ जाती है ? समाधान-बन्ध होने पर एक तीसरी ही विलक्षण अवस्था होकर एक स्कन्ध बन जाता है । श्री अकलंकदेव ने भी कहा है-'पूर्वावस्था प्राच्यवपूर्णकं तार्तीयकमवस्थान्तरं प्रादुर्भवतीत्येक स्कन्धत्वमुपपद्यते ।" इस प्रकार अनन्त परमाणुमों के बंध होने पर भाषा वर्गणारूप स्कंध की एक तीसरी विलक्षण अवस्था हो जाती है। जिसमें शब्दरूप परिणमन करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है। बंध के द्वारा तीसरी विलक्षण अवस्था को प्राप्त हए बिना मात्र परमाणू शब्दरूप नहीं परिणमन कर सकता। -जं. ग. 7-2-66/X/र. ला. जैन पुद्गल के भेद : छाया एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेजी नहीं जाती शंका-स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा २०६ की संस्कृत टीका में लिखा है-'छाया बादरसूक्ष्मम्, यच्छेत्तु भेत्तुम् अन्यत्र नेतुम् अशक्यं तवावरसूक्ष्ममित्यर्थः अर्थात् छाया को बादरसूक्ष्म कहा है, क्योंकि जो छेवा-भेदान जा सके और न एक जगह से दूसरी जगह लेजाया जा सके उसे बावरसूक्ष्म कहते हैं । अब यहाँ पर शंका होती है कि माज जो टेलीविजन में छाया भी एक स्थान से दूसरे स्थान पर यंत्रों द्वारा भेजी जाती है वह कैसे सिद्ध होगा ? समाधान-टेलीविजन में यन्त्र द्वारा छाया एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं भेजी जाती। किन्तु छाया को यंत्रों द्वारा Electric Waves में संक्रमण करके Electric Waves एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाती हैं जहां पर Electric Waves को यंत्रों द्वारा पुनः छायारूप में संक्रमण कर देते हैं। छाया भी पुद्गल है और Electric Waves भी पुद्गल हैं, अतः इन दोनों के परस्पर संक्रमण होने में कोई बाधा नहीं आती। -प्.ग. 17-5-62/VII/ नानकचन्द पुद्गल द्रव्य के गमन में धर्म व काल कारण हैं शंका-पुद्गल के गमन में धर्म सहकारी कारण है, किन्तु द्रव्यसंग्रह में काल को भी लिखा है सो कैसे ? समाधान-जीव और पुद्गल के गमन में धर्मद्रव्य साधारण सहकारी कारण है यह बात सत्य है, किन्तु एक कार्य के होने में अनेक सहकारी कारण होते हैं। जैसे मछली के गमन में धर्मद्रव्य के अतिरिक्त जल भी सहकारी कारण होता है। 'मोक्षशास्त्र अध्याय ५ सूत्र २२ में कालद्रव्य का उपकार बतलाया गया है। उसमें "क्रिया' भी एक उपकार बतलाया गया है। इसी प्रकार 'पंचास्तिकाय' गाथा ९८ में भी कहा गया है।' एक कार्य के होने में अनेक सहकारी कारण होने में कोई बाधा नहीं । 'वृहद्रव्यसंग्रह' गाथा २५ की संस्कृत टीका में इस शंका का समाधान स्वयं टीकाकार ने किया है वहाँ से विशेष देख लेना चाहिये। -जै. ग. 17-5-62/VII/ रामदास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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