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________________ १०१६ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : अविभाग प्रतिच्छेद समान हैं तो उनके गुणों में परिणमन नहीं होगा। यदि दोनों के अविभागप्रतिच्छेद असमान हों तो होनगुण वाला परमाणु अधिकगुण वाले परमाणुरूप परिणमन करेगा। इसप्रकार सैंतीसर्वा सूत्र बन्ध-अबन्ध का नियामक नहीं है । इसमें तो यह बताया गया है कि हीनाधिक गुणवाले परमाणुओं का परस्पर बन्ध होने पर कसा परिणमन होता है। --- पत्राचार/अगस्त ८७ ज. ला. जन, भीण्डर ज्ञानावरणादि कर्मों को तोस कोडाकोड़ी सागर स्थिति कैसे सम्भव है ? शंका-सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ अ० ५ सत्र ७ की टीका की अन्तिम पंक्ति में लिखा है-"उक्त विधि से बन्ध ने पर ज्ञानावरणादि कर्मों की तीसकोड़ाकोड़ीसागर स्थिति बन जाती है।" तीसकोड़ाकोड़ीसागर की स्थिति कैसे सम्भव है? क्या द्वि-अधिक गुण परमाणु ३० कोडाकोड़ीसागर तक गुणान्तर को संक्रमण नहीं करते ? समाधान--'तत्त्वार्थसूत्र' अ० ५ में सूत्र ३३ से ३७ परमाण प्रों के परस्पर बन्ध का कथन है। परस्पर स्कन्धों के बन्ध का या जीव पुद्गल के परस्पर बन्ध का कथन नहीं है । "बन्ध के समय दो अधिक गुणवाला परमाणु परिणमन कराने वाला होता है।" ऐसा ३७ वें सूत्र में कहा गया है । 'बन्ध' की व्याख्या करते हुए श्री पूज्यपादाचार्य ने कहा है-"पूर्वावस्थाप्रच्यवनपूर्णकं तार्तीयिकमवस्थान्तरं प्रादुर्भवतीत्येकत्वमुपपद्यते । इतरथा हि शुक्लकृष्णतन्तुवत संयोगे सत्यप्यपारिणामिकत्वात्सर्ग विविक्तरूपेणैवावतिष्ठेत । उक्तेन विधिना बन्धे पुनः सति ज्ञानावरणादीनां कर्मणां त्रिंशत्सागरोपमकोटाकोट्यादिस्थितिरुपपन्ना भवति ।" इसका अर्थ श्री पण्डित फूलचन्द्रजी ने इसप्रकार किया है "इससे पूर्व अवस्थानों का त्याग होकर उनसे भिन्न एक तीसरी अवस्था उत्पन्न होती है। अतः उनमें एकरूपता प्राजाती है । अन्यथा सफेद और काले तन्तु के समान संयोग के होने पर भी पारिणामिक न होने से सब अलग-अलग ही स्थित रहेंगे। उक्त विधि से बन्ध के होने पर ज्ञानावरणादि कर्मों की तीसकोडाकोडीसागरोपम स्थिति बन जाती है।" यहाँ बन्ध और संयोग का अन्तर दिखलाया गया है। बन्ध के होने पर पारिणामिकता होने से उन दोनों द्रव्यों में एकरूपता आजाती है। त० स० २१७ की टीका में प्राचीन गाथा उद्ध त की गई है। जिसमें लिखा हैबंधं पडि एयत्तं लक्खणदो तस्स हवइ णाणत्तं ।" अर्थात बन्ध की अपेक्षा पौद्गलिक कर्मों और आत्मा में एकरूपता आजाती है। किन्तु लक्षण की अपेक्षा उन दोनों में नानारूपता है । मात्र संयोग होने पर पारिणामिक न होने से एकरूपता नहीं पाती। इस एकरूपता को समझाने के लिए प्राचार्य महाराज ने ज्ञानावरणादि कर्म और जीव के बन्ध का दृष्टान्त दिया है। एकरूपता हो जाने के कारण कर्मों की ३० कोडाकोड़ीसागर स्थिति बन जाती है। स्पर्शादि गुणों में परिणमन होने पर भी ज्ञानावरणादि कर्मावस्था ३० कोड़ाकोड़ीसागर तक बनी रहती है। उसमें कोई बाधा नहीं पाती। जैसे मेरुपर्वत ... ....... ... अनादिकाल से स्थित है। -पत्राचार 1978/ज.ला. प्तन, भीण्डर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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