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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १००५ शुद्ध पुद्गल एक समय से अधिक कालतक भी रहता है शंका-क्या शुद्धपुद्गल केवल एकसमय मात्र ही शुद्ध रह सकता है ? कारण कि षट्गुणी वृद्धि से अशुद्धि आ जाती है। समाधान-परमाणु शुद्धपुद्गल द्रव्य है। जब तक वह परमाणु द्वचणुकादि स्कन्धरूप से न परिणमन करे उस समय तक मात्र गुण में षट्गुणवृद्धि हो जाने से अशुद्धता नहीं आती। अशुद्धता द्वयणुक आदि स्कन्धरूप परिणमन करने पर प्राती है। "पुदगलस्य कथ्यन्ते । शुद्धपरमाणवौ वर्णादयः स्वभावगुणा: द्वयणकादि स्कन्धे वर्णादयो विभावगुणाः शुद्धपरमाणरूपेणावस्थानं स्वभावद्रव्यपर्यायः वर्णादिभ्यो वर्णान्तरादिपरिणमनं स्वभावगुणपर्यायः । द्वयणकाविस्कन्धरूपेण परिणमनं विभावद्रध्यपर्यायाः। तेष्वेव द्वयणकादि स्कन्धेषुवर्णान्तरादिपरिणमनं विभावगुणपर्यायाः।" (पंचास्तिकाय गाथा ५ श्री जयसेनाचार्य कृत टीका ) अर्थात्-'पुद्गल के विषय में कहते हैं। शुद्ध परमाणु के वर्णादिक स्वभावगुण हैं और यणुक आदि स्कन्ध में वर्णादि विभावगुण है। शुद्धपरमाणुरूप से रहना स्वभावद्रव्यपर्याय है और उस परमाणु के वर्णादि का अन्य वर्णादिरूप परिणमन करना स्वभावगुण पर्याय है। द्वयण कादि स्कन्धरूप परिणमन विभाव द्रव्यपर्याय है और उन द्वयणुकादि स्कन्ध में वर्णादि से अन्य वर्णादिरूप विभाव गुणपर्याय है।' "स्वभावगुणपर्याया अगुरुलघुकगुणषड्ढानिवृद्धिरूपाः । .......................... शुद्धार्थपर्याया अगुरुलघुकगुणषड्ढानिवृद्धिरूपेण स्वभावगुणपर्याय व्याख्यानकाले पूर्वमेव सर्वव्याणां कथिताः।" ( पंचास्तिकाय गाथा १६ श्री जयसेनाचार्य कृत टीका ) अगुरुलघुगुण के द्वारा षट्गुणहानिवृद्धिरूप स्वभाव गुणपर्याय है । यह ही शुद्ध अर्थपर्याय है जो क्षणक्षयी है, अतः परमाणु में जो षटगुणवृद्धि होती है वह स्वभावगुणपर्याय है। अतः ऐसा नियम नहीं कि शुद्ध पुद्गल एकसमय मात्र ही शुद्ध रहता हो । जब तक वह द्वयणुकादि स्कन्धरूप नहीं परिणमन करता, वह शुद्ध रहता है और उसके गुणों में परिणमन भी स्वाभाविक अर्थात् शुद्ध गुण पर्याय हैं। जे.ग.5-4-62/"| नानकचन्द 'तत्त्वार्थसूत्र' में बन्धविषयक नियम परमाणुओं के लिए हैं शंका-सर्वार्थ सिद्धि अ. ५ सूत्र ३६ में बंध के लिये दो अधिक गुण का नियम बतलाया है वह स्कन्ध के लिये भी है या मात्र परमाण के लिये है ? समाधान-तत्त्वार्थसूत्र ( मोक्षशास्त्र ) अध्याय ५ में सूत्र ३३ से ३७ तक पुद्गल परमाणुओं के परस्पर बंध का कथन है । सूत्र ३३ में बंध का साधारण नियम है और सूत्र ३६ में विशेष नियम है । सूत्र ३३ की उत्थानिका में ( तत्त्वार्थवृत्ति टीका में ) श्री अतसागर सूरि ने ये सूत्र परमाणु बंध विषयक बतलाये हैं। वह उत्थानिका इसप्रकार है "अथ परमाणूनां परस्परबंध निमित्तसूचनपरं सूत्रमुच्यते ।" अर्थ-अब परमाणुओं के परस्पर बंध के कारणों को बतलाने के लिये आगे का सूत्र कहते हैं । -णे. ग. 7-8-67/VII/ 2. ला जैन कार्य परमाणु कारण परमाणु बन सकता है । कार्य परमाणु को जघन्यता का नियम नहीं शंका-क्या भेव से होने वाले शुद्ध परमाणु का भी पुनः कभी बंध हो सकता है ? क्या कार्य परमाणु जघन्य परमाण ही होता है ? क्या जघन्य परमाणु ( कार्यपरमाणु ) बदलकर कभी भी बंधयोग्य नहीं होता, अर्थात् जघन्यपरमाणु कभी भी कारणपरमाणु नहीं बनता ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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