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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १००३ के द्वारा कर्म-नोकर्म पुद्गलों से भिन्न जीव उनके साथ एकत्र होने से और कर्म नोकर्मरूप पुद्गलों के साथ एकत्र हुए जीव बाद में पृथक् होने से वे उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं। श्री पंचास्तिकाय गाथा ९८ में भी क्रिया के विषय में श्री प्रवचनसार के अनुकूल ही कहा है जो इस प्रकार है जीवा पुग्गलकाया सह सक्किरिया हवंति ण य सेसा । पुग्गलकरणा जीवा खंधा खलु कालकरणा दु॥९८॥ टीका-प्रदेशान्तरप्राप्तिहेतुः परिस्पन्दनरूपपर्यायः क्रिया। तत्र सक्रिया बहिरंगसाधनेन सहभूताः जीवाः सक्रियाबहिरंग साधनेन सहभूताः पुद्गलाः। जीवानां सक्रियत्वस्य बहिरंगसाधनं कर्मनोकर्मोपचयरूपाः पुद्गला इति ते पुद्गलकरणाः। तवभावाग्निःक्रियत्वं सिद्धानां । अर्थ-जीव द्रव्य और पुद्गलकाय निमित्तभूत परद्रव्य की सहायता से क्रियावन्त होते हैं और शेष के जो चार द्रव्य हैं वे क्रियावन्त नहीं हैं। जीव तो पुद्गल का निमित्त पाक क्रियावन्त होते हैं और पदगलस्कन्ध निश्चय करके कालद्रव्य के निमित्त से क्रियावन्त होते हैं ॥९८॥ प्रदेश से प्रदेशान्तर होने में कारणभूत जो परिस्पन्दनरूप पर्याय है वह क्रिया है। बहिरंग साधनों से होने वाली क्रियासहित जीव है और बहिरंग साधनों से होने वाला क्रियासहित पुद्गल हैं। जीवों के क्रियासहितपने के बहिरंगसाधन कर्म और नोकर्म का समूहरूप पुद्गल हैं इसलिये वे जीव-पुद्गलों का निमित्त पाकर क्रियावन्त होते हैं। कर्म नोकर्मरूप पुद्गल का अभाव होने से सिद्धों के निःक्रियपना है । श्री मोक्षशास्त्र में भी धर्म, अधर्म और आकाशद्रव्य को नि:क्रिय कहकर यह भाव प्रकट किया है कि शेष पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय क्रियावन्त हैं। श्री राजवातिक अ० ५ सूत्र ७ की टीका व वार्तिक १ में क्रिया का लक्षण इसप्रकार कहा है-उपयनिमित्तापेक्षः पर्याय विशेषो द्रव्यस्य देशान्तरप्राप्तिहेतुः क्रिया ॥१॥ अभ्यन्तरं क्रियापरिणामशक्तियुक्त द्रव्यम, बाह्यच नोदनाभिघाताद्यपेक्ष्योत्पद्यमानः पर्यायविशेषः द्रव्यस्य देशान्तरप्राप्ति हेतः क्रियेत्युपदिश्यते । उभयनिमित्त इति विशेषणं द्रव्यस्वभावनिवृत्त्यर्थम् । यदि हि द्रव्यस्वभावः स्यात् परिणामिनो द्रव्यस्याऽनुपरतक्रियत्वप्रसङ्गः । द्रव्यस्य पर्याय विशेष इति विशेषणम् अर्थान्तरमावनिवृत्त्यर्थम् । यदि हि क्रिया द्रव्या. वर्थान्तरभूता स्यात् द्रव्यस्य निश्चलनत्वप्रसङ्गः। देशान्तर प्राप्तिहेतुरिति विशेषणं ज्ञानादिरूपाविनिवृत्त्यर्थम् । अर्थ-उभयनिमित्त का अर्थ अभ्यन्तर और बाह्य कारण है। वहाँ पर क्रियारूप परिणमनशक्ति का घारक द्रव्य अन्तरंग कारण है और नोदन अर्थात् प्रेरणा का होना एवं अभिघात आदि अर्थात् धक्का आदि बाह्य कारण हैं। इन दोनों प्रकार के कारणों के द्वारा जिसकी उत्पत्ति है और जो द्रव्य के एक देश से दूसरे देश में ले जाने में कारण है ऐसी विशेष पर्याय का नाम किया है। यहाँ क्रिया पदार्थविशेष है एवं उभयनिमित्तापेक्ष, पर्याय विशेष और द्रव्यस्थ देशान्तर प्राप्ति हेतु ये तीन उसके विशेषण हैं। किसी बात की व्यावृत्ति करना अथवा उसे व्यवहार में ले आना यह विशेषण प्रयोग का प्रयोजन है । यहां पर जो उभयनिमित्तापेक्ष यह विशेषण दिया है वह क्रिया, द्रव्य का स्वभाव न समझा जावे, इस बात की निवृत्ति के लिये है। यदि क्रिया को द्रव्य का स्वभाव मान लिया जाएगा तो उस क्रिया का कभी अभाव तो होगा नहीं फिर द्रव्य सदा स्थिर न रहकर हलनचलनरूप ही रहेगा इसलिये क्रिया को द्रव्य के स्वभाव की निवृत्ति के लिये उभयनिमित्तापेक्ष विशेषण कार्यकारी है। पर्यायविशेष जो क्रिया को विशेषण दिया गया है वह क्रिया द्रव्य से भिन्न पदार्थ न समझा जाए इस बात को बताने के लिये है। यदि क्रिया वथा भिन्न पदार्थ माना जाएगा तो द्रव्य सर्वथा निश्चल हो जाएगा। देशान्तर प्राप्ति हेतु जो विशेषण है वह आत्मा के अनादि गुणों की और पुद्गलों के रूपादि गुणों की निवृत्ति के लिये है। उपयुक्त तीन ग्रन्थों में क्रिया का जो लक्षण कहा है उससे स्पष्ट है कि 'क्रिया' से अभिप्राय वभाविकक्रिया का है अथवा समानजाति व असमानजाति द्रव्य-पर्याय में परिस्पन्दरूप या हलन-चलनरूप जो क्रिया होती है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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