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________________ १००२ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । गमनस्वभाव के लोप होने का कोई कारण नहीं है। बिना किसी बाधक कारण के मुक्तजीव की ऊर्ध्वगति क्यों रुक जाती है? मुक्तजीव की ऊर्ध्वगति लोक के अंततक ही होती है, उससे आगे अलोक में मुक्तजीव की गति नहीं होती। आगे उसकी गति क्यों नहीं होती है इसके लिये सूत्र कहा गया है-धर्मास्तिकाय का अभाव होने से लोक के अंत से प्रागे मुक्त जीव का गमन नहीं होता। गति के उपकार में कारणभूत धर्मास्तिकाय का ऊपर अभाव है, अलोक में मुक्त जीव के गमन का अभाव है। यदि धर्मास्तिकाय का गति में उपकार नहीं माना जावे तो लोकप्रलोक विभाग के अभाव का प्रसंग पा जायगा। इससे यह भी सिद्ध होता है कि निमित्त कारण के अभाव में मुक्त (शुद्ध) जीव की ऊर्ध्वगति रुक जाती है। -जं. सं. 13-6-57/.../ श्री दि.जैन स्वाध्याय मंडल प्रात्मा का स्वभाव ऊर्ध्वगमन शंका-क्या आत्मा का स्वभाव ऊर्ध्वगमन करना है या आत्मा का स्वभाव निष्क्रिय है ? समाधान आत्मा का स्वभाव ऊर्ध्वगमन है। कहा भी है-विस्ससोड्ढगई/यद्यपि व्यवहारेण चतुर्गतिजनककर्मोदयवशेनोर्वाधस्तियंग्गतिस्वमावस्तथापि निश्चयेन केवलज्ञानाद्यनन्तगुणावाप्ति लक्षणमोक्षगमनकाले वित्रसास्वभावेनोर्वगतिश्चेति (वृहद्रव्यसंग्रह गाथा २ वटीका ) अर्थ-जीव स्वभाव से ऊध्र्वगमन करने वाला है। यद्यपि व्यवहार से चारों गतियों को उत्पन्न करने वाले कर्मों के उदयवश ऊँचा, नीचा तथा तिरछा गमन करने वाला है फिर भी निश्चयनय से केवलज्ञानादि अनन्त गुणों की प्राप्तिस्वरूप जो मोक्ष है उसमें पहुँचने के समय स्वभाव से ऊर्ध्वगमन करने वाला है। श्री राजवातिक अध्याय १० सूत्र ७ की वार्तिक ६ व टीका इस प्रकार हैतथागतिपरिणामाच्चाग्निशिखावत यथा तिर्यकप्लवनस्वभावसमीरणसम्बन्ध निरस्सुका प्रदीपशिखा स्वभावानुत्पतति तथा मुक्तात्मापि नानागतिविकारणकर्मनिवारणं सति ऊर्ध्वगतिस्वभावत्वावमेवारोहति । अर्थ-जिसप्रकार तिरछी बहने का स्वभाव रखने वाली वायु, दीपक की शिखा को भी तिरछी कर देती है, परन्तु जब उस वायु का सम्बन्ध नहीं रहता है अर्थात् वायु का बहना जब बन्द हो जाता है तब दीपक की शिखा अपने स्वभाव से ऊपर को ही जाती रहती है. क्योंकि ऊपर को जाना ही दीपशिखा का स्वभाव है उसी प्रकार नानागतियों में ले जाने में कारणभूत कर्मों का सम्बन्ध रहने पर यह आत्मा भी गतियों में गमन करता रहता था, परन्तु उन गतियों के कारणभूत कर्मों का सर्वथा निवारण हो जाने पर वह अपने ऊर्ध्वगतिस्वभाव के कारण नियम से ऊपर को ही सीधा गमन करता है अर्थात् जीव का ऊर्ध्वगमन करना ही स्वभाव है। श्री पंचास्तिकाय गाथा २८ की टीका में इसप्रकार है आत्मा हि परद्रध्यत्वात्कर्म रजसा साकल्येन यस्मिन्नेव क्षले मुच्यते तस्मिन्नेवोर्ध्वगमनस्वभावत्वाल्लोकान्तमधिगम्य परतो गतिहेतोरभावादवस्थितः। आत्मा जिससमय समस्त परद्रव्य कमरज से मुक्त होता है उसी समय ऊर्जगमन स्वभाव से लोक के अन्त में जाता है उसके आगे गतिहेतु (धर्मास्तिकाय) का अभाव होने से अवस्थित है। क्रिया का लक्षण परिस्पन्द (कम्पन) है अर्थात् प्रदेशों में हलन-चलन होना। इस लक्षण को पुद्गल और जीव में घटित करके बताया है-प्र. सा. गाथा १२९ टीकापरिस्पन्दनलक्षणक्रिया।.......पुद्गलास्तु परिस्पन्दस्वभावत्वात्परिस्पन्देन भिन्नाः संघातेन संहताः पुनर्भेदेनोत्पद्यमानावतिष्ठमानभज्यमानाः क्रियावन्तश्च भवन्ति । तथा जीवा अपि परिस्पन्दस्वभावत्वात्परिस्पन्देन नूतनकर्मनोकर्मपुदगलेभ्यो भिन्नास्तैः सहसंघातेन संहता: पुनर्भेदेनोस्पद्यमानावतिष्ठमानभज्यमानाः क्रियावन्तश्च भवन्ति । अर्थ-पुद्गल तो क्रियावाले भी होते हैं, क्योंकि परिस्पन्द द्वारा पृथक पुद्गल एकत्र होते हैं और एकत्र मिले हुए पुद्गल पुनः पृथक हो जाते हैं इसलिये वे उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं । तथा जीव भी क्रियावाले भी होते हैं, क्योंकि परिस्पन्द स्वभाव वाले होने से परिस्पन्द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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