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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] निगोदिया जीवों के परिणामों में विभिन्नता होना अप्रसिद्ध भी नहीं है । " णिगोदजीवा बावरा सुहुमा तिरिक्खेहि कालगदसमाणा कविगदिओ गच्छति ? दुवे गदीओ गच्छन्ति तिरिक्खर्गादि मसगाँव चेदि ।" धवल पु० ६ पृ० ४५७ । [ eee निगोद जीव- बादर या सूक्ष्म तिर्यंचपर्याय से मरण करके कितनी गतियों में जाते हैं ? दो गतियों में जाते हैं (१) तियंचगति ( २ ) मनुष्यगति । परिणामों की विभिन्नता के कारण ही निगोद जीव विभिन्न गतियों में जाते हैं। यदि एक से परिणाम होते तो एक ही गति में जाने का नियम होता, किंतु ऐसा नियम है नहीं । अतः सभी निगोद जीवों के सदृश परिणाम नहीं होते हैं, इसीलिये वे एक ही प्रकार के दुःख का अनुभव नहीं करते हैं । —– जै. ग. 1-1-76 / VIII / ... आत्मा व जीव में कथंचित् अन्तर है शंका- आत्मा और जीव में क्या कोई अन्तर बताया जा सकता है ? यदि है तो क्या और कैसे ? समाधान - " प्रात्मा" शब्द का अर्थ इस प्रकार है - "अतु धातुः सातत्यगमनेऽर्थे वर्तते । गमनशब्देनात्र ज्ञानं भव्यते, सर्वे गत्यर्था ज्ञानार्थाः" इति वचनात् । तेन कारणेन यथासंभवं ज्ञानसुखादि गुणेषु आसमन्तात् अतति वर्तते यः स आत्मा भव्यते । अथवा शुभाशुभमनोवचनकाव्यापारैर्यथासम्भवं तीव्रमन्दादिरूपेण आसमन्तादतति वर्तते यः स आत्मा । अथवा उत्पादव्ययध्रौव्य रासमन्तावतति वर्तते यः स आत्मा ।" वृ द्र. सं. गाथा ५७ की टीका । ....... अर्थ - 'अत्' धातु निरंतर गमन करने रूप अर्थ में है और "सब गमनार्थक धातु ज्ञानार्थक होती हैं" इस वचन से यहाँ पर 'गमन' शब्द से ज्ञान कहा जाता है। इसकारण जो यथासम्भव ज्ञान, सुखादि गुणों में सर्वप्रकार ता है, वह आत्मा है । अथवा शुभाशुभ मन, वचन, काय की क्रिया द्वारा यथासम्भव तीव्रमंदआदिरूप से जो पूर्ण रूपेण वर्तता है वह आत्मा । अथवा उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य इन तीनों धर्मों के द्वारा जो पूर्णरूप से वर्तता है, वह आत्मा है । जीव शब्द का अर्थ इस प्रकार है- “आउआदिवाणाणं धारणं जीवाणं तं च अजोगिचरिमसमयावो वरिणत्थि सिद्ध सु पाणणिबंधणटुकम्माभावादी, तम्हा सिद्धा ण जीवा, जीविदपुव्वा इदि ।" धवल पु० १४ पृ० १३ । Jain Education International अर्थ - आयुप्रादि प्राणों को धारण करना जीवन है । वह प्रयोगी के अन्तिम समय से आगे नहीं पाया जाता, क्योंकि सिद्धों के प्राणों के कारणभूत आठों कर्मों का अभाव है । इसलिये सिद्ध जीव नहीं हैं । श्रधिक से अधिक वे जीवितपूर्व कहे जा सकते हैं । For Private & Personal Use Only इस अपेक्षा से जीव और आत्मा में अन्तर है, किन्तु जो चेतन परिणामों से जीता है वह जीव है और जो जाने सो श्रात्मा इस अपेक्षा जीव और आत्मा में अन्तर नहीं, एकार्थवाची है । - जै. ग. 10-8-72/X/ र. ला. जैन, मेरठ www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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