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________________ ९९८ ] [ पं• रतनचन्द जैन मुख्तार : अर्थ-मिथ्याडष्टि भव्यजीव है उसमें केवल बहिरात्मा तो व्यक्तिरूपसे रहता है, अन्तरात्मा तथा परमात्मा ये दोनों शक्तिरूप से रहते हैं, भावीनैगमनय की अपेक्षा व्यक्तिरूप से भी रहते हैं। मिथ्याडष्टि अभव्यजीव में बहिरात्मा व्यक्तिरूप से तथा अन्तरात्मा तथा परमात्मा ये दोनों शक्तिरूप से ही रहते हैं। भावी नैगमनय की अपेक्षा अभव्य में अंतरात्मा तथा परमात्मा व्यक्तिरूप से नहीं रहते। कदाचित् कोई कहे कि यदि प्रभव्य जीव में परमात्मा शक्तिरूप से रहता है तो उसमें अभव्यत्व कैसे? इसका उत्तर यह है कि प्रभव्यजीव में परमात्मशक्ति की केवलज्ञानादिरूप से व्यक्ति न होगी इसलिये उसमें अभव्यत्व है। शुद्धनय की अपेक्षा परमात्मा की शक्ति तो मिथ्याष्टिभव्य और अभव्य इन दोनों में समान है। यदि प्रभव्यजीव में शक्तिरूप से भी केवलज्ञान न हो तो उसके केवलज्ञानावरण कर्म सिद्ध नहीं हो सकता। इसप्रकार सम्यक्त्वरहित जीव में जिनत्व शक्तिरूप से सिद्ध हो जाने से अनेकान्त सिद्धान्त में कोई बाधा नहीं आती है। -जं. ग. 8-1-70/VII/ रो. ला. जन चेतन व चैतन्य में कौन किसके पाश्रय से रहता है ? शंका-चेतन के आश्रय चैतन्य रहता है या चैतन्य के आश्रय चेतन रहता है ? समाधान-चेतनद्रव्य और अचेतनद्रव्य इसप्रकार द्रव्य के दो भेद हैं। जिस द्रव्य में चेतना या चैतन्य गुण पाया जावे वह चेतनद्रव्य है। जिस द्रव्य में चेतना अर्थात् चैतन्यगुण न हो वह अचेतनद्रव्य है। इसप्रकार चेतनद्रव्य के चैतन्यगुण रहता है । कहा भी है"यश्चेतनोऽयमित्यन्वयस्तदद्रव्यं यच्चान्वयाधितं चैतन्यमिति विशेषणं स गुणः।" -प्रवचनसार गा० ८० टीका अर्थ-जो यह चेतन है, यह अन्वय है, वह द्रव्य है । जो अन्वय के आश्रय रहनेवाला चैतन्य है, यह विशेषण है वह गुण है। "व्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः ॥५॥४१॥" ( मोक्ष शास्त्र ) यहाँ पर भी यह बतलाया गया है कि गुण सदा द्रव्य के आश्रय रहते हैं। इससे भी यह सिद्ध हुआ कि चैतन्यगुण निरन्तर चेतनद्रव्य के आश्रय रहता है। -णे. ग. 16-7-70/...... | रो. ला. जैन एकशरीरस्थ निगोदों के सुखदुःखानुभव असमान होते हैं शंका-एक निगोद शरीर में रहने वाले अनन्त जीवों को दुःखानुभव एक प्रकार का होता है या उसमें कुछ अन्तर है ? समाधान-एकनिगोद शरीर में रहने वाले सभी जीवों के एक जैसे परिणाम नहीं होते हैं। किसी के तीव्रपरिणाम होते हैं और किसी के मंदपरिणाम होते हैं और उन तीव्र व मंद परिणामों के अनुसार ही तीन व मंद प्रनभागसहित कर्मबन्ध होता है। जैसा कि "तीवमन्वज्ञाताज्ञात भावाधिकरणवीयं विशेषेभ्यस्तद्विशेष" इस सत्र में कहा गया है। जैसा-जैसा अनुभाग उदय में आता है, उसके अनुरूप ही सुख-दुःख का वेदन होता है, क्योंकि "विपाकोऽनुभवः" ऐसा सूत्र है । अतः सभी निगोदिया जीव एक ही प्रकार के दुःख का अनुभव नहीं करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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