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________________ [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तारः सिद्धों का आकार निश्चयनय का विषय नहीं है इसका यह अभिप्राय नहीं है कि सिद्धों का आकार एक कल्पना मात्र हैं, झूठ है-असत्य है; किन्तु सिद्धों का आकार वास्तविक है जो पूर्वशरीर से किंचित् ऊन है । कहा भी है ६२ ] णिक्कमा अट्ठ गुणा किंचूणा चरमदेहवो सिद्धा । लोयग्गठिदा णिच्चा उत्पादवएहि संजुत्ता ||१४|| [ बृ० द्र० सं०] अर्थ - सिद्ध भगवान ज्ञानावरणादि आठकर्मों से रहित हैं, सम्यक्त्व आदि भाठगुणों के धारक हैं । अन्तिमशरीर से कुछ कम आकार वाले हैं। आगे धर्मास्तिकाय का प्रभाव होने से लोक के अग्रभाग में स्थित हैं, नित्य हैं तथा उत्पाद व्यय से युक्त हैं । सिद्ध भगवान निराकार भी हैं। इसका यह अभिप्राय है कि सिद्ध भगवान प्रमूर्तिक हैं अर्थात् आठ कर्मों का अभाव हो जाने से सिद्धों में श्रमूर्तिकपना व्वक्त हो गया है, किन्तु संसार अवस्था में वह अमूर्तिकपना कर्मों से तिरोहित होने के कारण संसारी जीव कथंचित् अर्थात् कर्मबंध को अपेक्षा से मूर्तिक है । श्री अमृतचन्द्राचार्य ने समयसार की टीका के अन्त में शक्तियों का वर्णन करते हुए कहा भी है- "कर्मबंधव्यपगमव्यं जित सहज स्पर्शादिशून्यात्मप्रदेशिका अमूर्तत्वशक्तिः । " अर्थ - कर्मबंध के अभाव से व्यक्त किये गये सहज स्पर्शादि शून्य आत्मप्रदेशस्वरूप अमूत्तंत्व शक्ति है ? "कस्म णोकम्माणमणाविसंबंघेण मुत्तत्तमुवगयस्त जीवस्स घणलोगमेत्तपवेसस्स जोगवसेण संघार विसप्पणधम्मियस्स अवयवाणं परतंतलक्खणसं बंधे गछट्टभंगुप्पत्तीए ।" धवल १४ पृ० ४५ । अर्थ- जो कर्म नौकर्मों का अनादि सम्बन्ध होने से मूर्तपने को प्राप्त हुआ है और जिसके घनलोकप्रमाण जीवप्रदेश योग के वशसे संकोच - विस्तार धर्मवाले हैं ऐसे जीव के अवयवों के परतन्त्र लक्षण सम्बन्ध से शरीरबंध के छठे मंग की उत्पत्ति होने में कोई विरोध नहीं है । "मुत्तटुकम्मजणिव सरीरेण अणाइणा संबद्धस्स जीवस्त संसारावस्थाएं सव्वकालं ततो अपुधभूवस्स तस्संबंघेण मूत्तभावमुवगयस्स सरीरेण सह संबंधस्स विरोहामावावो ।" धवल १६ पृ० ५१२ । अर्थ – मूर्त प्राठ कर्म जनित अनादि शरीर से संबद्ध जीव संसार अवस्था में सदा काल उससे अपृथक् रहता है | अतएव उसके सम्बन्ध से मूर्तभाव को प्राप्त हुए जीव का शरीर के साथ सम्बन्ध होने में कोई विरोध नहीं है । निराकार का यह अर्थ नहीं है कि सिद्ध जीवों का कोई आकार नहीं है, क्योंकि प्रमूर्तिक द्रव्यों का भी प्रदेशत्वगुण के कारण आकार अवश्य होता है। जैसे आकाश का आकार समघनरूप है । धर्म, अधमंद्रव्य, पुरुषाकाररूप हैं । Jain Education International - जै. ग. 1-10-64/VIII-IX / जयप्रकाश जीव और पुद्गल की क्रियाशीलता शंका – जीव क्रियाशील है अथवा नहीं ? कृपया निश्चयनय से बतलाइये। यदि क्रियाशील है तो मुक्त (शुद्ध) अवस्था में उसे निष्क्रिय ( अकर्ता ) क्यों माना है ? For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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