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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ६६१ ___ अर्थ-व्यवहारनय के विषय की अपेक्षा यह जीव, समुद्घात के बिना, संकोच-विस्तार के कारण अपने छोटे-बड़े शरीर के प्रमाण रहता है। और निश्चयनय के विषय की अपेक्षा असंख्यातप्रदेश का धारक है। 'यद्यपि निश्चयेन सहजशुद्धलोकाकाशप्रमितासंख्येयप्रदेशस्तथापि व्यवहारेणानादिकर्मबन्धाधीनत्वेन शरीरनामकर्मोदयजनितोपसंहार विस्ताराधीनत्वात् घटादिभाजनस्थ प्रवीपवत् स्वदेहपरिमाणः।' अर्थ -यद्यपि जीव निश्चयनय से लोकाकाश के प्रमाण प्रसंख्यात स्वाभाविकशुद्धप्रदेशों का धारक है, तो भी व्यवहार से अनादिकर्मबंधवशात् शरीर कर्मोदय से उत्पन्न संकोच तथा विस्तार के आधीन होने से, घटादि में स्थित दीपक की तरह अपनी देह के बराबर है। बृ० द्र० सं० गाथा २ की टीका शरीरप्रमाण होकर जीव का जो प्राकाररूप संस्थान बनता है वह भी व्यवहारनय का विषय है। जीव अनिर्दिष्टसंस्थानवाला है, यह निश्चयनय का विषय है। कहा भी है अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसई। जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिट्टिसंठाणं ।।४०॥ समयसार ___ अर्थ-निश्चयनय के विषय की अपेक्षा जीव अरस, अरूप, अगंध, अव्यक्त, चेतनागुणवाला, अशब्द, अलिंगग्रहण और अनिर्दिष्टसंस्थान ( आकार ) वाला है। इसकी टीका में श्री अमृतचन्द्राचार्य संस्थान के विषय में निम्नप्रकार लिखते हैं "द्रव्यांतरारब्धशरीर संस्थानेनैव संस्थान इति निर्देष्टुमशक्यत्वात् नियतस्वभावेनानियतसंस्थानानंतशरीरवतित्वात्संस्थाननामकर्मविपाकस्य पुदगलेषु निविश्यमानत्वात, प्रतिविशिष्टसंस्थानपरिणतसमस्तवस्तुतत्त्वसंवलितसहजसंवेदनशक्तिस्वेपि स्वयमखिललोकसंवलनशून्योपजायमान निर्मलानुभूतितात्यंतमसंस्थानत्वाच्चानिदिष्टसंस्थानः।" अर्थ-(१) पुद्गल द्रव्य कर रचे हुए संस्थानों (प्राकारों ) कर कहा नहीं जाता कि ऐसा आकार है। (२) अपने नियत स्वभावकर अनियत संस्थानरूप अनंत शरीरों में वर्तता है, इसलिये भी आकार नहीं कहा जाता। (३) 'संस्थान' नामकर्म का विपाक (फल) है वह भी पुद्गलद्रव्य में है, उसके निमित्त से भी प्राकार नहीं कहा जा सकता। (४) जुदे २ आकाररूप परिणमते जो समस्त वस्तु उनके स्वरूप से तदाकार हुआ जो अपना स्वभावरूप संवेदन उस शक्तिरूपपना इसमें होने पर भी आप समस्त लोक के मिलाप कर शून्य हुई जो अपनी निर्मलज्ञान मात्र अनुभूति उस अनुभूतिपने करि किसी भी आकाररूप नहीं है, इसकारण भी अनिर्दिष्ट संस्थान है। ऐसे चार हेतूमों से निश्चयनय की अपेक्षा संस्थान का निषेष कहा। यद्यपि सिद्ध भगवान के आत्मप्रदेशों का प्राकार है तथापि वह आकार पूर्वशरीर के आकाररूप होता है इसलिये वह प्राकार भी निश्चयनय का विषय नहीं है। जिसप्रकार समस्त सिद्ध भगवानों के ज्ञानादि अनन्तगण तथा आत्मप्रदेशों की संख्या समान होती है उसप्रकार आकार व अवगाहना समान नहीं होती, क्योंकि जघन्यअवगाहना से उत्कृष्ट-अवगाहना तक अवगाहना के असंख्यात भेद होते हैं। कोई पद्मासन से सिद्ध होते हैं, कोई खड्गासन से सिद्ध होते हैं, इसलिये भी सिद्धों के आकार में समानता नहीं है। संस्थान के मूलभेद छह हैं और सूक्ष्मदृष्टि से उत्तरभेद असंख्यात हैं। इन सब संस्थानों से सिद्ध होते हैं। इस कारण भी सिद्धों के प्राकारों में विभिन्नता है। इसप्रकार सिद्धों का भी कोई नियतसंस्थान नहीं है, किन्तु उनका आकार भी पूर्वशरीर के आकार पर आधारित है। इसलिये सिद्धों का आकार भी निश्चयनय का विषय नहीं है। लोकाकाश के बराबर असंख्यातप्रदेशीपना सब सिद्धों में है अतः यह निश्चयनय का विषय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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