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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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(६) 'यतो जोवपरिणामं निमित्तीकृत्य पुद्गलाः कर्मत्वेन परिणमंति पुद्गलकर्मनिमित्तीकृत्य जीवोपि परिणमती तिजीवपुद्गलपरिणामयोरितरेतर हेतुत्वोपन्यासेऽपि जीव पुद्गलयोः परस्परव्याप्यव्यापकभावाभावाज्जीवस्य पुद्गलपरिणामानां पुद्गलकर्मणोपि जीवपरिणामानां कर्तुं कर्मत्वासिद्धौ निमित्तनैमित्तिकमावमात्रस्याप्रतिषिद्धत्वावितरेतर निमित्तमात्रीभवनेनैव द्वयोरपि परिणामः ' ( समयसार गाथा ८० व ८१ की आत्मख्याति टीका ) ।
अर्थ - जीव परिणाम को निमित्त करके पुद्गलकर्मरूप परिणमित होते हैं और पुद्गलकर्म को निमित्त करके जीव भी परिणमित होते हैं, इसप्रकार जीव के परिणाम के और पुद्गल के परिणाम के परस्पर हेतुत्व का उल्लेख होने पर भी जीव और पुद्गल में परस्पर व्याप्यव्यापकभाव का अभाव होने से जीव को पुद्गल परिणामों के साथ और पुद्गलकर्म को जीवपरिणामों के साथ कर्ताकम्पने की प्रसिद्धि होने से, मात्र निमित्त नैमित्तिकभाव का निषेध न होने से, परस्पर निमित्तमात्र होने से ही दोनों का परिणाम होता है ।
(७) "उपयोगस्यानादिवस्त्वंतर भूत मोहयुक्तत्वा मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरिति त्रिविधः परिणामविकारः । स तु तस्य स्फटिकस्वच्छताया इव परतोपि प्रभवन् दृष्टः ।" ( समयसार गाथा ८९ टीका आत्मख्याति ) ।
अर्थ - अनादि से अन्य वस्तुभूत मोह के साथ संयोग होने से उपयोग का मिथ्यादर्शन, प्रज्ञान और प्रविरति के भेद से तीनप्रकार परिणामविकार हैं । उपयोग का वह परिणामविकार, स्फटिक की स्वच्छता के परिणामविकार की भाँति पर के कारण उत्पन्न होता हुआ दिखाई देता है ।
(८) आत्मा अनात्मना रागादीनामकारक एव अप्रतिक्रमणाप्रत्याख्यानयोद्वं विध्योपदेशान्यथानुपपत्तेः । य खलु प्रतिक्रमणाप्रत्याख्यानयोर्द्रव्यभाव भेदेन द्विविधोपदेश: सद्रव्यभावयोनिमित्तनैमित्तिकभावं प्रथयन्नकर्तृत्वमात्मनो ज्ञापयति । तत एतत् स्थितं परद्रव्यं निमित्तं नैमित्तिका आत्मनो रागादिभावाः । यद्य ेवं नेष्येत् तदा द्रव्यातिक्रमणाप्रत्याख्यानयोः कर्तुं त्वनिमित्तत्वोपदेशोऽनर्थक एव स्यात् । तदनर्थकत्वे त्वैकस्यैवात्मनो रागादिभावनिमित्तत्वात्तनित्यकर्तृत्वानुषंगान्मोक्षाभावः प्रसजेच्च । ततः परद्रव्यमेवात्मनो रागादिभावनिमित्तमस्तु । तथा सति तु रागादीनामकारक एवात्मा, तथापि यावन्निमित्तभूतद्रव्यं न प्रतिक्रामति न प्रत्याचष्टे च तावन्नैमित्तिकभूतं भावं न प्रतिक्रामति न प्रत्याचष्टे च यावत्तु भावं न प्रतिक्रामति न प्रत्याचष्टे तावत्कत्तव स्यात् । यदेवं निमित्तभूतं द्रव्यं प्रतिक्रामति प्रश्याचष्टे च तदैव नैमित्तिकभूतं भावं प्रतिक्रामति प्रत्याचष्टे च । यदा तु भावं प्रतिक्रामति प्रत्याचष्टे तदा साक्षादकर्तेव स्यात् । ( समयसार आत्मख्याति टीका गाथा २८३ २८५ )
अर्थ - आत्मा आपसे रागादिभावों का प्रकारक ही है, क्योंकि आप ही कारक हो तो अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान इनके द्रव्य भाव इन दोनों भेदों के उपदेश की प्रप्राप्ति आती है। जो निश्चयकर प्रप्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान के दो प्रकार ( भेद) का उपदेश है वह उपदेश द्रव्य और भाव के निमित्त नैमित्तिकभाव को विस्तारता हुआ आत्मा के अकर्तापन को जतलाता है । इसलिये यह सिद्ध हुआ कि परद्रव्य तो निमित्त हैं और नैमित्तिक श्रात्मा के रागादिकभाव हैं । यदि ऐसा न माना जाय तो द्रव्य अप्रतिक्रमण और द्रव्य अप्रत्याख्यान इन दोनों के कर्तापन के निमित्तपने का उपदेश है, वह व्यर्थ ही हो जायगा । और उपदेश के अनर्थक होने से एक आत्मा के ही रागादिक भाव के निमित्तपने की प्राप्ति होने पर सदा कर्तापन का प्रसंग आयेगा, उससे मोक्ष का प्रभाव सिद्ध होगा । इसलिये आत्मा के रागादिभावों का निमित्त परद्रव्य ही रहे । ऐसा होने पर श्रात्मा रागादिभावों का अकारक ही है यह सिद्ध हुआ। तो भी जब तक रागादिक का निमित्तभूत परद्रव्य का प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान न करे तबतक नैमित्तिकभूत रागादिभावों का प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान नहीं होता और जबतक इन भावों का प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान
' तबतक रागादिभावों का कर्ता ही है। जिससमय रागादिभावों के निमित्तभूत द्रव्यों का प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान
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