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________________ ६८० ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार! अर्थ-चेतन अर्थात् आत्मा प्रकृति ( द्रव्यकर्म ) के निमित्त से उत्पन्न होता है और नष्ट होता है, तथा प्रकृति भी चेतन ( आत्मा ) के निमित्त से उत्पन्न होती है तथा नष्ट होती है । इसप्रकार परस्पर निमित्त से दोनों ही आत्मा और प्रकृति का बंध होता है और इससे संसार उत्पन्न होता है । उपयुक्त गाथाओं तथा अन्य भी गाथाओं से यह स्पष्ट है कि श्री कुन्दकुन्द भगवान ने जीव के विकार अपनी योग्यतामात्र से नहीं कहा, किन्तु कर्मों को भी कारण कहा है । समयसार के टीकाकार श्री अमृतचन्द्रसूरि इस विषय में क्या कहते हैं, इस पर विचार किया जाता है(१) परपरिणति हेतो मोहनाम्नोऽनुभावावविरतमनुभाव्यव्याप्तकल्माषितायाः । मम परमविशुद्धिः शुद्धचिन्मात्रमूर्ते भवतु समयसार व्याख्ययवानुभूतेः ॥३॥ अर्थ-इस समयसार की व्याख्या ( टीका ) से ही मेरी अनुभूति की परमविशुद्धि हो यह मेरी परिणति, परपरिणति के कारणभत जो मोहनामक कर्म है। उसके अनुभाव से ( उदय-विपाक से ) जो प्र विकारी परिणामों ) की व्याप्ति है, उससे निरन्तर कल्माषित अर्थात् मैली है, और मैं द्रव्यदृष्टि से शुद्धचैतन्यमात्र मूर्ति हूँ ॥ ३ ॥ (२) यदा त्वनाद्यविद्याकंदलीमूलकंदायमानमोहानुवृत्तितन्त्रतया दृशिज्ञप्तिस्वभावनियतवृत्तिरूपादात्मतत्त्वात्प्रच्युत्य, परद्रव्यप्रत्ययमोहरागद्वषादिभावकगतत्वेन वर्तते तदा पुद्गलकर्मप्रवेशस्थितत्वात्परमेकत्वेन युगपज्जानन् गच्छंश्च परसमय इति प्रतीयते । ( समयसार आत्मख्याति टोका गाथा नं० २)। अर्थ-जब वह अनादि अविद्यारूपी केले के मूल की गांठ की भांति मोह उसके उदयानुसार प्रवृत्ति की प्राधीनता से दर्शन, ज्ञानस्वभाव में निश्चित प्रवृतिरूप आत्मतत्त्व से अनादि से छूटकर परद्रव्य के निमित्त से उत्पन्न मोह, राग-द्वेषादिभावों में एकतारूप से लीन होकर प्रवृत्त होता है पुद्गलकर्म के प्रदेशों में ( कार्माणस्कन्धरूप के फल में ) स्थित होने से परद्रव्य को अपने साथ एकरूप से एककाल में जानता है और रागादिरूप ( विकारीभाव ) परिणमित होता हुआ "परसमय" है । समयसार गाथा नं० २। (३) "एकच्छत्रीकृतविश्वतया महतामोहग्रहेण गोरिव बाह्यमानस्य ............."। इदं तु नित्यव्यक्ततयांतःप्रकाशमानमपि कषायचक्रेण सहैकी क्रियमाणत्वावत्यंततिरोभूतं सत् ....................." (समयसार गाथा नं० ४ आत्मख्याति टीका )। अर्थ-समस्त विश्व को एकछत्र राज्यवश करने वाला महा मोहरूपी भूत जिसके पास यह समस्त जीवलोक बल की भांति भार वहन करता है। आत्मा सदा प्रकटरूप से अन्तरंग में प्रकाशमान है, तथापि कषायों के साथ एकरूप जैसा किया जाता है इसलिये अत्यन्त तिरोभाव को प्राप्त हुआ है । समयसार माथा ४ की टीका (४) निरवधिबंधपर्यायवशेन प्रत्यस्तमितसमस्त स्वपरविभागानि ................." समयसार गाथा ३१ आत्मख्याति टीका। अर्थ-अनादि अमर्यादरूप बंधपर्याय के वश समस्त स्वपर का विभाग अस्त हो गया है। (५) "फलदानसमर्थतया प्रादुर्भूय भावकत्वेन भवंतमपि दूरत एव तदनुवृत्तरात्मनो भाव्यस्य .........." अर्थ-मोहकर्म फल देने की सामर्थ्य से प्रगट उदयरूप होकर भावकपने से प्रगट होता है और तदनुसार जिसकी प्रवृत्ति है ऐसा जो आत्मा भाव्य" ( समयसार गाथा ३२ को टीका) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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