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________________ [ ५५ व्यक्तित्व और कृतित्व ] स्वाध्याय संघ की बैठक में भाग लेकर जयपुर लौटते समय हुआ । आपसे कर्म सिद्धान्त पर चर्चा हुई। उससे लगा कि आप कर्म सिद्धान्त के गहन अध्येता हैं और यदि श्राप जयपुर कुछ दिन बिराजें तो अन्य स्वाध्यायी भी आपके ज्ञान से लाभ उठा सकते हैं; यह सोच कर मैंने आपसे कुछ दिन जयपुर ठहरने के लिए निवेदन किया । आपने मेरे निवेदन को स्वीकार किया और निवाई से सहारनपुर लौटते समय दो दिन जयपुर ठहरे। ग्राप आचार्य श्री विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार में स्वाध्याय गोष्ठी में पधारे। वहाँ प्रापकी श्री श्रीचन्दजी गोलेचा, श्री मोहनलालजी मुथा, श्री नथमलजी हीरावत आदि से षट्खण्डागम, कषायपाहुड़, महाबन्ध में प्ररूपित कर्म सिद्धान्त पर वार्ता हुई । आपने बड़े ही सुन्दर ढंग से सरल भाषा में उनकी जिज्ञासाओं का समाधान व विषय का निरूपण किया । आपके समक्ष कर्मसिद्धान्त के विषय में प्रचलित धारणाओं से भिन्न अर्थ प्रस्तुत किए गए । श्री श्रीचन्दजी गोलेचा सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति आदि ग्रन्थों व अनेक जैन कथानों तथा आध्यात्मिक सिद्धान्तों को रूपात्मक एवं प्रतीकात्मक रूप में रखा तो लगा कि आप परम्परागत रूढ़िवादी विचारों से दूर रह कर निष्पक्ष व तटस्थ भाव से भी चिन्तन करने में सक्षम हैं । समयाभाव होने से उस समय आप जयपुर अधिक नहीं ठहर सके । आगे पत्र व्यवहार से आपसे सम्बन्ध जुड़ा रहा । हमें षट्खण्डागम, कषायपाहुड, महाबन्ध, कर्मग्रन्थ श्रादि के स्वाध्याय में जो जिज्ञासाएँ उत्पन्न होती थीं, हम उन्हें पत्र द्वारा आपके पास भेजते और आप बड़े ही प्रेम से उनके उत्तर (मयशास्त्र के निर्देशस्थल के ) देते थे । कर्मसिद्धान्त जैसे कठिन व गहन विषय को भी पत्राचार द्वारा सरलता से समझा देना आपकी विशेषता थी । वितण्डावाद से परे रह कर विरोधी युक्तियों पर तटस्थ भाव से चिन्तन कर समझने-समझाने की आपकी प्रवृत्ति प्रशंसनीय थी । आप शास्त्रसम्मत सिद्धान्त को स्पष्टरूप से अभिव्यक्त करने में कभी सङ्कोच नहीं करते थे । शास्त्र से असंगत बात का कभी अनुमोदन नहीं करते थे। आपका पूरा जीवन मुख्यतः जैन ग्रन्थों के स्वाध्याय में ही बीता । आपने षट्खण्डागम जैसे महान ग्रन्थ की धवल टीका, महाबन्ध ( महाघवला ), कषायपाहुड़ की जयधवला टीका, लब्धिसार-क्षपणासार जैसे उच्च कोटि के ग्रन्थों का अनेकबार आद्योपान्त गहन स्वाध्याय किया था । अतिसूक्ष्म पैनी दृष्टि से इन्हें देखा था । आप इनके अधिकारी विद्वान् थे । आपको दिगम्बर शास्त्रों का जीता जागता कोष कहें तो भी अत्युक्ति नहीं होगी । वृद्धावस्था होते हुए भी आपकी स्मरणशक्ति आश्चर्यजनक थी। किसी सिद्धान्त व सूत्र के बारे में पूछा जाय, आप उसी समय किन-किन शास्त्रों में किस-किस स्थल पर उसका उल्लेख है, विश्वास के साथ प्रस्तुत कर देते थे । उच्चकोटि के विद्वान् होते हुए भी आप 'सादा जीवन लेकर वृद्ध तक, निरक्षर से लेकर उच्च कोटि के विद्वान् तक रुचिपूर्वक सिद्धान्त की बात समझाते थे, टालते नहीं थे । आपको उच्च विचार' के मूर्तिमान रूप थे । बालक से कोई भी आपसे मिले, आप उन्हें पूर्ण प्रयास व विद्वत्ता का गर्व कहीं छू भी नहीं गया था । आपने अपना सारा समय श्रुत सेवा-साधना व धर्म के प्रसार में दिया । इसप्रकार आपका जीवन समाज को समर्पित था । वस्तुतः आपका जीवन समाज का जीवन था । निःस्वार्थ भाव से सेवा करने वाले ऐसे जीवनदानी विद्वान् की उपस्थिति समाज के लिये गौरव की बात थी । आप शरीर को अपने से भिन्न समझकर अपने रोगादि के उपचार के प्रति उपेक्षा बरतते थे । परन्तु समाज का कर्तव्य था कि वह आपके शरीर को समाज का अर्थात् अपना शरीर समझकर आपकी सेवा-सुश्रूषा पर विशेष ध्यान देता ताकि आपकी विद्वत्ता व योग्यता से उसे विशेष लाभ मिलता । वृद्धावस्था में शरीर कृश हो चला था, शरीर के निर्बल व रोगग्रस्त होने के साथ-साथ आँखें भी कमजोर हो चली थीं । उस अवस्था में भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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