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________________ ५६ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुस्तार : यदि समाज ध्यान देकर एक आशुलिपिलेखक ( Shorthand writer ) आपकी सेवा में रखता तो आपकी अनन्य विद्या का यथेष्ट लाभ मिल सकता था। परन्तु यह सब कुछ नहीं हो पाया, इसका खेद है। अब वह ज्ञानी इस संसार (नरपर्याय) में नहीं रहा। यही कामना है कि दिवङ्गत आत्मा को सुख शान्ति प्राप्त हो तथा वह अपनी कर्मकालिमा को नष्ट कर यथाशीघ्र मुक्तिरमा का वरण करे । उस पवित्रात्मा को सश्रद्ध नमन ! महान् आत्मा मुख्तार सा० * सेठ श्री बद्रीप्रसादजी सरावगी, पटना सिटी करीबन ३० वर्ष से भी पहले की बात है जब मैं अपना कारोबार कलकत्ता में करता था। वहां सुबहशाम श्री दिगम्बर जैन पार्श्वनाथ मन्दिर, बेलगछिया में करणानुयोग के ग्रन्थ गोम्मटसार ( जीवकाण्ड व कर्मकाण्ड ) की स्वाध्याय पूज्य स्व० प्यारेलालजी भगत के सान्निध्य में स्व० पण्डित श्रीलालजी काव्यतीर्थ, श्री फागुलालजी (वर्तमान आचार्य कल्प १०८ श्री श्रुतसागरजी महाराज ) एवं ब्रह्मचारी सुरेन्द्रनाथजी (जो बाद में ईसरी शान्तिनिकेतन में रहते थे ) के साथ करता था। स्व० पूज्य भगतजी सा० यद्यपि पढ़े-लिखे कुछ भी नहीं थे; संस्कृत, प्राकृत की तो बात ही क्या, साधारण हिन्दी भी कठिनता से लिखते-पढ़ते थे, लेकिन उनका स्वाध्याय का अभ्यास बहुत गहन था । क्षयोपशम इतना विलक्षण था कि गोम्मटसार का पूरा सार उनकी जिह्वा पर था एवं अर्थसंदृष्टियों का भी पूरा अध्ययन था । पूरा विषय ज्यों का त्यों समझा देते थे । ऐसा अध्ययन मैंने तो आज तक किसी विद्वान् का नहीं देखा । जब सन् १९५० में मेरे व्यापार की एक शाखा पटना (बिहार) में हो गई तो करीबन डेढ़ वर्ष बाद में स्वयं भी कलकत्ता छोड़कर पटना रहने लगा। अपने स्वाध्याय का क्रम पटना में भी वैसे ही चालू रखा लेकिन कोई साथी न होने से अकेला ही लब्धिसार-क्षपणासार, षट्खण्डागम धवला टीका की स्वाध्याय करता था । जो शङ्कायें होती थीं, समाधान के लिये कई विद्वानों के पास डाक से भेजता था । किन्तु दुर्भाग्य से किसी का समाधान नहीं मिलता था। कटनी निवासी श्रद्धेय पण्डित जगन्मोहनलालजी शास्त्री से मेरी बहुत घनिष्टता है। कलकत्ता से पहले मैं बहुत वर्षों तक कटनी में रहा था। उनकी मुझ पर पूर्ण कृपा एवं विशेष स्नेह है। उनके पास मैंने 'लब्धिसार' की कई शङ्काऍ समाधान हेतु भेजीं। उनका उत्तर मिला कि आपकी शङ्काएं बहुत गहन है, बिना ग्रन्थ देखे समाधान नहीं भेजा जा सकता । ग्रन्थ देखने का समय मुझे मिलता नहीं अतः आपकी शङ्काएँ सहारनपुर । पण्डित श्री रतनचन्दजी के पास भेज दी हैं। वहीं से आपके पास समाधान आएगा। इससे पहले सिद्धान्त भूषण, श्रद्धय बाबू रतनचन्दजी सा० मुख्तार से मेरा कोई परिचय नहीं था। श्रीमान् पण्डितजी सा० की कृपा से ही आपसे मेरा परिचय सन् १९५४ के मई मास में पत्रों के द्वारा शुरु हुआ । आपके पास मेरी शङ्काएँ पहुँची, एक दो दिन में ही डाक द्वारा उनका समाधान मिल गया। समाधान पढ़ कर बहुत सन्तोष हुआ । शङ्का समाधान का यह क्रम डाक द्वारा बराबर चालू रहा। करीबन एक-डेढ़ वर्ष बाद जब मैं ईसरी आश्रम में पूज्य बड़े वर्गीजी गणेशप्रसादजी के पास था, पं० रतनचन्दजी का भी वहाँ पधारना हुआ। तभी उनके प्रत्यक्ष दर्शन हुए; साक्षात् परिचय हुआ। दुबला-पतला शरीर सादा संयमित जीवन, चारों अनुयोगों का गम्भीर तलस्पर्शी अध्ययन, क्षयोपशम एवं धारणाशक्ति इतनी विलक्षण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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