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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [८६३ ने तीसरे गुणस्थान में चारित्र स्वीकार नहीं किया है, इससे भी सिद्ध होता है कि अनन्तानुबन्धी चारित्र की घातक नहीं है किंतु चारित्र की घातक प्रकृतियों की अनन्तता में कारण है। गोम्मटसार में भी अनन्तानुबन्धी को चारित्र की घातक नहीं बतलाया है । पढमादिया कसाया सम्मत्तं देससयलचारितं। जहखादं घावंति य गुणणामा होति सेसावि ॥४५॥ ( गो० क०) अर्थ-पहली अनन्तानुबंधीकषाय सम्यग्दर्शन को घात करती है, दूसरी अप्रत्याख्यानावरणकषाय देशचारित्र को, तीसरी प्रत्याख्यानावरणकषाय सकल चारित्र को, चौथी संज्वलनकषाय यथाख्यातचारित्र को घातती हैं। इसी कारण इनके नाम भी वैसे ही हैं जैसे इनमें गुण हैं। सम्मत्तवेससयलचरित्त-जहक्खादचरणपरिणामे । घावंति वा कसाया, चउसोल असंखलोगमिदा ॥२८३॥ (गो० जी०) अर्थ-अनन्तानबन्धी चतुष्क सम्यक्त्व को घातती है, अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क देशसंयम को, प्रत्याख्यानावरण चतुष्क सकलसंयम को, संज्वलन चतुष्क यथाख्यातचारित्र को घातती हैं । कषायों के चार, सोलह अथवा प्रसख्यातलोकप्रमाण भेद हैं। पञ्चसंग्रह में कहा गया है पढमो वंसणघाई विविमो तह घाई वेसविरइति । तइओ संजमघाई चउथो जहखायघाईया ॥११५॥ (ज्ञानपीठ पञ्चसंग्रह पृ० २५) अर्थ-प्रथम अनन्तानुबन्धीकषाय सम्यग्दर्शन का घात करती है, द्वितीय अप्रत्याख्यानावरण कषाय देशविरति की घातक है । तृतीय प्रत्याख्यानावरणकषाय सकलसंयम की घातक है और चतुर्थ संज्वलनकषाय यथाख्यात. चारित्र की घातक है। सर्वार्थसिद्धिव राजवातिक में भी श्री पूज्यपाद व श्री अकलंकदेवादि आचार्यों ने कहा है कि अनन्तानुबंधी का फल तो अनन्तसंसार परिभ्रमण है। चारित्र का घात करना तो अप्रत्याख्यानावरण प्रादि कषायों का कार्य है। "अनन्तसंसारकारणत्वास्मिथ्यावर्शनमनन्तम, तवनुबन्धिनोऽनन्तानुबन्धिनः क्रोधमानमायालोभाः। यस्यादेशविरतिसंयमासंयमाख्यामल्पामपि कन शक्नोति ते देशप्रत्याख्यानमावृण्वन्तोऽप्रत्याख्यानावरणाः क्रोधमानमाया. लोमाः। यदुवयाद्विरति कृत्स्ना संयमाख्यां न शक्नोति कते कृत्स्नं प्रत्याख्यानमावृण्वन्तः प्रत्याख्यानावरणाः क्रोधमानमायालोभाः।" [ अ. ८ सूत्र ९ की टीका अनन्तसंसार का कारण होने से मिथ्यादर्शन अनन्त कहलाता है, जो कषाय उस मिथ्यात्व की अनुबन्धी हैं वे अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ हैं। जिसके उदय में यह जीव स्वल्प देशचारित्र को भी करने में समर्थ नहीं होता वह अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ हैं। जिसके उदय में पूर्ण विरति को करने में समर्थ नहीं होता वह प्रत्यास्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ है। तत्त्वार्थवृत्ति में भी कहा है कि अनन्तानुबन्धी सम्यक्त्व को घातने वाली है और अनन्तसंसार का कारण है, किन्तु चारित्र की घातक नहीं है, क्योंकि चारित्र की घातक तो अप्रत्यास्यानावरणादि कषाय हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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