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________________ ८६४ ] [पं. रतनचन्द जैन मुख्तार। "अनन्तं मिण्यादर्शनमुच्यते, अनन्तभवभ्रमणहेतुत्वात् । अनन्तं मिथ्यात्वम् अनुबंधनन्ति सम्बन्धयन्ति इत्येवंशीला ये क्रोधमानमायालोभास्ते अनन्तानुबन्धिनः । अनन्तानुबन्धिषु कषायेषु सत्सु जीवः सम्यक्त्वं न प्रति. पद्यते तेन ते सम्यक्त्वघातकाः भवन्ति । येषामुदयात् स्तोकमपि वेशव्रतं संयमासंयमनामकं जीवो धतुं न ममते ते अप्रत्याख्यानावरणाः क्रोधमानमायालोमाः।" [ अ० ८ सूत्र ९ ] मिथ्यादर्शन को अनन्त कहते हैं, क्योंकि वह मिथ्यादर्शन अनन्तभव भ्रमण का कारण है। जिस क्रोध मान, माया, लोभकषाय का स्वभाव उस अनन्तरूप मिथ्यात्व का बन्ध कराना है, अर्थात् जिस कषाय का सम्बन्ध मिथ्यात्व से है वह अनन्तानुबंधी है। अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय में सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं होता, अतः अनन्तानबन्धी सम्यक्त्व की घातक है। जिस कषाय के उदय में स्तोक भी चारित्र धारण न कर सके वह अप्रत्याख्यानावरण कषाय है। "ईषत्प्रत्याख्यानमप्रत्याख्यानम् तदावृण्वन्तोऽप्रत्याख्यानावरणाः क्रोधमानमायालोमा उच्यन्ते ।" किञ्चित् त्याग को अप्रत्याख्यान कहते हैं । जो किंचित् भी त्याग अर्थात् चारित्र न होने देवे उसको अप्रत्याख्यानावरण क्रोध-मान-माया-लोभ कहते हैं। इन सब आर्ष प्रमाणों से यह सिद्ध हो जाता है कि अनन्तानुबन्धीकषाय सम्यक्त्व की घातक है किसी विवक्षित चारित्र की घातक नहीं है। फिर भी यह चारित्र की घातक अप्रत्याख्यानावरणादि कषायों के प्रवाह को अनन्तरूप कर देती है अतः इसको चारित्रमोहनीय या चारित्रप्रतिबंधक प्रकृति कहा है। फिर भी सम्यग्दृष्टि ऐसे कार्य नहीं करता जिनसे सम्यग्दर्शन में बाधा पाती हो जैसे मिथ्याष्टियों की, अन्य मत वालों की प्रशंसा या स्तवन नहीं करता और जिनवाणी में शंका नहीं करता, इत्यादि । -जं. ग./9-1-69/VII, IX/र. ला. पोन शंका-षट्खंडागम सूत्र १० की टीका में अनन्तानुबन्धी को सम्यग्दर्शन व स्वरूपाचरणचारित्र को घातने वाली बतलाया है। समाधान-षट्खंडागम पु० १६४ सूत्र १० को टीका में "सम्यग्दर्शनचारित्र-प्रतिबन्ध्यनन्तानुबन्धो" ऐसा कहा है। इसमें 'स्वरूपाचरण' का शब्द नहीं है। अनुवादक महोदय ने अपनी धारणा के अनुसार हिंदी भाषा में 'स्वरूपाचरण' का शब्द जोड़ दिया है, जो उचित नहीं था। -जं. ग. 29-1-70/VII/ अ. पं. सच्चिदानन्द अनन्तानुबन्धी कषाय का कार्य का-श्री नेमिचन्द्र सिद्धांत चक्रवर्ती आचार्य ने गोम्मटसार की रचना धवल व जयधवल के अनुसार की है अतः गोम्मटसार के कथन में तथा धवल सिद्धांत ग्रंथ के कथन में परस्पर मतभेव नहीं होना चाहिए, किन्तु ७ मई १९७० के 'जैन सन्देश' में श्री पं० कैलाशचन्दजी ने लिखा है कि गोम्मटसार में तो अनन्तानुबन्धी कषाय को सम्यग्दर्शनकी घातक बतलाया है और धवल में अनन्तानबन्धी को सम्यग्दर्शन व चारित्र की घातक बतलाया है. इस प्रकार श्री पं० कैलाशचन्दजी ने दोनों प्रथों में परस्पर मतभेद दिखलाया है। इस मत भेव का क्या कारण है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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