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________________ ८६२ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । जो आचार्य तीसरे गुणस्थान की उत्पत्ति अनन्तानुबन्धी के क्षयोपशम से मानकर क्षायोपशमिकभाव कहते हैं उनके मत में सासादनगुणस्थान में औदयिकभाव मानना पड़ेगा, किन्तु आगम में दूसरे गुणस्थान में औदयिकभाव स्वीकार नहीं किया गया है। इन उपयुक्त प्रार्ष वाक्यों से इतना स्पष्ट हो जाता है कि तीसरे सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में अनंतानुबंधी का क्षयोपशम तो है, किंतु उसके क्षयोपशम की अपेक्षा से तीसरे गुणस्थान में क्षायोपशमिकभाव नहीं कहा गया है, क्योंकि अनन्तानुबन्धी चारित्रमोहनीयकर्म की प्रकृति है। यदि अनन्तानुबन्धी के क्षयोपशम से तीसरे गुणस्थान में क्षायोपशमिकभाव माना जायेगा तो दूसरे गुणस्थान में, अनन्तानुबन्धी का उदय होने से, प्रौदयिकभाव मानना पडेगा, जिसके कारण आर्ष ग्रन्थों से विरोध आ जायेगा, क्योंकि आर्ष ग्रन्थों में दूसरे गुणस्थान में पारिणामिकभाव माना गया है। इन आर्ष वाक्यों से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि यदि अनन्तानुबन्धी के क्षयोपशम से चतुर्थ गुणस्थान में स्वरूपाचरण चारित्र की कल्पना की जायगी तो तीसरे गुणस्थान में सम्यग्दर्शन के अभाव में भी स्वरूपाचरणचारित्र की कल्पना का प्रसंग आ जायगा, क्योंकि तीसरे गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी का क्षयोपशम धवलाकार ने उपयुक्त वाक्यों में स्वीकार किया है। चतुर्थ गुणस्थान में स्वरूपाचरण चारित्र की कल्पना करने वालों का यह प्रश्न हो सकता है कि यदि निश्री स्वरूपाचरणचारित्र को नहीं घात करती तो चारित्र के विषय में उसका क्या व्यापार है? इसका उत्तर धवल ग्रंथराज में इस प्रकार दिया गया है "ण चारित्तमोहणिज्जा वि. अपच्चक्खाणावरणावीहि आवरिव चारित्तस्स आवरणे फलाभावा ।" ( धवल पु०६ पृ. ४२)। यहाँ पर यह प्रश्न किया गया है कि अनन्तानुबन्धी को चारित्रमोहनीयकर्म भी नहीं माना जा सकता. कि अप्रत्याख्यानावरण आदि कषाय चारित्र का घात करती है प्रतः चारित्र के घात करने में अनन्तानबम्धी के फल का अभाव है। अर्थात् अनन्तानुबन्धी चारित्र का घात नहीं करती है, क्योंकि चारित्र का घात तो अप्रत्या. ख्यानावरणादि कषाय करती है अतः अनन्तानुबन्धी चारित्रमोहनीय कर्म नहीं हो सकता ? जाणताणबंधिचउक्कवावारी चारित्ते णिप्फलो, अपच्चक्खाणावरणावि-अणंतोदय पवाह कारणस्स णि फलतविरोहा।" (धवल पु० ६ पृ० ४३ ) धवलाकार उपयुक्त शंका का उत्तर देते हुए कहते हैं-चारित्र में अनन्तानुबन्धी चतुष्क का व्यापार समान भी नहीं है, क्योंकि चारित्र की घातक अप्रत्याख्यानावरणादि के उदय को अनन्तरूप प्रवाह करने में अनन्तानबन्धी कारण है । अतः अनन्तानुबन्धी के चारित्र में निष्फलत्व का विरोध है। अर्थात अनन्तानबन्धी स्वयं धात नहीं करती, किन्तु चारित्र का घात करने वाली अप्रत्याख्यानावरणादि कषायों के उदय को अनंतप्रवाहरूप कर देती है। इसीलिए इसका नाम अनन्तानुबन्धीकषाय रखा गया है तथा चारित्रमोहनीयकर्म के भेदों में कहा गया है। धवल ग्रन्थराज से तो यह सिद्ध होता है कि अनंतानुबंधी कषाय चारित्र को घातक नहीं है, किंतु चारित्र. घातक कर्म प्रकृतियों को बल देने वाली है फिर धवलाकार अनन्तानुबन्धी को स्वरूपाचरणचारित्र की घातक कैसे कह सकते हैं। धवलाकार ने तीसरे गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी का क्षयोपशम बतलाया है, किंतु किसी भी आचार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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