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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ८५५ स्वरूपाचरण व सम्यक्त्वाचरण में अन्तर शंका-सम्यक्त्वाचरण को ही स्वरूपाचरण कहें तो क्या हानि है ? कौनसा दोष आता है ? समाधान-सम्यक्त्वाचरण और स्वरूपाचरण इन दोनों का लक्षण भिन्न-भिन्न है अत: इन दोनों को एक नहीं कहा जा सकता है। "जिणणाणदिद्विसुद्ध पढम सम्मत्तचरण चारित्तं ।" [ चारित्रपाहुड़ ] संस्कृत टीका-"जिनस्य सर्वज्ञवीतरागस्य सम्बन्धि यज्ज्ञानं दृष्टिदर्शनं च ताभ्यां शुद्ध पञ्चविंशति-दोषरहितं प्रथमं तावदेकं सम्यक्त्वाचरणचारित्रं ।" अर्थ-वीतरागसर्वज्ञदेव सम्बन्धी ज्ञान व दर्शन का शुद्ध होना सम्यक्त्वाचरण है। २५ दोषों से रहित जो दर्शन है वही सम्यक्त्वाचरण है। मूढत्रयं मदाश्चाष्टौ तथानायतनानि षट । अष्टौ शङ्कादयश्चेति दृग्दोषाः पञ्चविंशति ॥ अर्श-तीन मूढ़ता, पाठ मद, छह अनायतन और शंका आदि आठ दोष ये सम्यग्दर्शन के २५ दोष हैं। इन २५ दोषों द्वारा सम्यग्दर्शन को मलिन न होने देना सम्यक्त्वाचरण है। जिन सात प्रकृतियों के उपशम आदि से सम्यग्दर्शन होता है, उन्हीं सात प्रकृतियों के अभाव में सम्यक्त्वाचरण होता है, किन्तु स्वरूपाचरण चारित्रमोहनीयकर्म की २८ प्रकृतियों के अभाव में होता है, क्योंकि स्वरूपाचरणचारित्र यथाख्यातचारित्र है। जो उपशांतमोह-ग्यारहवें गुणस्थान में, क्षीणमोह-बारहवें गुणस्थान में, सयोगकेवली-तेरहवें गुणस्थान में और प्रयोगकेवली-चौदहवें गुणस्थान में होता है । "रागद्वषाभावलक्षणं परमं यथाख्यातरूपं स्वरूपे चरणं निश्चयचारित्रं भणन्ति इदानीं तदमावेऽन्यच्चारित्रमाचरन्तु तपोधनाः।" परमात्म प्रकाश २।३६ । अर्थ-राग-द्वेष के अभावरूप यथाख्यातस्वरूप स्वरूपाचरण ही निश्चयचारित्र है, वह स्वरूपाचरणचारित्र इससमय पंचमकाल में भरतक्षेत्र में नहीं है, इसलिये साधुजन मुनि महाराज सामायिकादि अन्य चारित्र का आचरण करो। "यथाख्यातविहारशुद्धिसंयताः उपशान्तकषायादयोऽयोग केवल्यन्ता।" स. सि. १८ अर्थ-उपशान्तकषाय ग्यारहवें गणस्थान से लेकर अयोगकेवली चौदहवें गुणस्थानतक यथाख्यातचारित्र होता है । अर्थात् ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें और चौदहवें इन चार गुणस्थानों में ही यथाख्यातचारित्र होता है, किन्तु सम्यक्त्वाचरण चौथे गुणस्थान में हो जाता है । स्वरूपाचरणचारित्र अपरनाम यथाख्यातचारित्र का स्वरूप निम्न प्रकार है "मोहनीयस्य निरवशेस्योपशमाक्षयाच्च आत्मस्वभावावस्थापेक्षालक्षणं अयथाख्यातचारित्रमित्याख्यायते । पूर्वचारित्रानुष्ठायिभिराख्यातं न तत्प्राप्त प्राइमोहक्षयोपशमाभ्यामित्यथाख्यातम् । अथशब्दस्या निरवशेषमोहक्षयोपशमानन्तरमाविर्भवतीत्यत्यर्थः।" सर्वार्थसिद्धि ९।१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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